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आदिसे कहा-"तुम निश्चिन्त रहना । यह आत्मा शाश्वत है। अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होनेवाला है । तुम शान्ति और समाधिपूर्वक रहना। जो रत्नमय ज्ञानवाणी इस देहके द्वारा कही जा सकनेवाली थी उसे कहने का समय नहीं है। तुम पुरुषार्थ करना।" रात्रिको ढाई बजे वे फिर बोले-"निश्चिन्त रहना, भाईका समाधिमरण है ।" अवसानके दिन प्रातः पौने नौ बजे कहा-'मनसुख, दुःखी न होना । मैं अपने आत्मस्वरूप में लीन होता हूँ ।” फिर वे नहीं बोले। इस प्रकार पांच घंटे तक समाधिमें रहकर संवत् १९५७ की चैत्र वदो ५ ( गुजराती ) मंगलवारको दोपहर के दो बजे राजकोटमें इस नश्वर शरीरका त्याग करके उत्तम गतिको प्राप्त हए। भारतभूमि एक अनुपम तत्त्वज्ञानी सन्तको खो बैठी। उनके देहावसानके समाचारसे मुमुक्षुओंमें अत्यन्त शोकके बादल छा गये । जिन-जिन पुरुषोंको जितने प्रमाणमें उन महात्माकी पहचान हुई थी उतने प्रमाणमें उनका वियोग उन्हें अनुभूत हुआ था। उनकी स्मृतिमें शास्त्रमालाकी स्थापना
वि० सं० १९५६ में भादों मासमें परम सत्श्रुतके प्रचार हेतु बम्बईमें श्रीमद्जीने परमश्रुत प्रभावकमण्डलकी स्थापना की थी। श्रीमद्जीके देहोत्सर्गके बाद उनकी स्मृतिस्वरूप 'श्री रायचन्द्रजैनग्रन्थमाला' की स्थापना की गई जिसके अन्तर्गत दोना सम्प्रदायोंके अनेक सद्ग्रन्थोंका प्रकाशन हुआ है जो तत्त्वविचारकों के लिए इस दुषमकालको बितानेमे परम उपयोगी और अनन्य आधाररूप है । महात्मा गांधीजी इस संस्थाके ट्रस्टी और श्री रेवाशंकर जगजीवनदास मुख्य कार्यकर्ता थे । श्री रेवाशंकरके देहोत्सर्ग बाद संस्थामें कुछ शिथिलता आ गई परन्तु अब उस संस्थाका काम श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अग़ासकेट स्टियोंने सम्भाल लिया है और सुचारुरूपसे पूर्वानुसार सभी कार्य चल रहा है। श्रीमद्जीके स्मारक
श्रीमद्जीके अनन्य भक्त आत्मनिष्ठ श्री लघुराजस्वामी (श्री लल्लुजी मुनि) की प्रेरणासे श्रीमद्जीके स्मारकके रूपमें और भक्तिधामके रूपमें वि० सं० १९७६ को कार्तिकी पणिमाको अगास स्टेशनके पास 'श्रीमद राजचन्द्र आश्रम' की स्थापना हई थी। श्री लघुराज स्वामीके चौदह चातुर्मासोंसे पावन हआ यह आश्रम आज बढ़ते-बढ़ते गोकुल-सा गाँव बन गया है। श्री स्वामीजी द्वारा योजित सत्संगभक्तिका क्रम आज भी यहाँ पर उनकी आज्ञानुसार चल रहा है। धार्मिक जीवनका परिचय करानेवाला यह उत्तम तीर्थ बन गया है । संक्षेप में यह तपोवनका नमूना है। श्रीमद्जीके तत्त्वज्ञानपूर्ण साहित्यका भी मुख्यतः यहीसे प्रकाशन होता है। इस प्रकार यह श्रीमद्जीका मुख्य जीवंत स्मारक है।
इसके अतिरिक्त वर्तमानमें निम्नलिखित स्थानोंपर श्रीमद् राजचन्द्र मंदिर आदि संस्थाएँ स्थापित हैं जहाँ पर मुमुक्षु-बन्धु मिलकर आत्म-कल्याणार्थ वीतराग-तत्त्वज्ञानका लाभ उठाते हैं-ववाणिया, राजकोट, मोरबी, वडवा, खंभात, काविठा, सीमरडा, वडाली, भादरण, नार, सुणाव, नरोडा, सडोदरा, धामण, अहमदाबाद, ईडर, सुरेन्द्रनगर, वसो, वटामण, उत्तरसंडा, बोरसद, बम्बई ( घाटकोपर एवं चौपाटी ), देवलाली, बैंगलोर, इन्दोर, आहोर (राजस्थान), मोम्बासा (आफ्रिका) इत्यादि । अन्तिम प्रशस्ति
आज उनका पार्थिव देह हमारे बीच नहीं है मगर उनका अक्षरदेह तो सदाके लिए अमर है । उनके मूल पत्रों तथा लेखोंका संग्रह गुर्जरभाषामें 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थमें प्रकाशित हो चुका है (जिसका हिन्दी अनुवाद भी प्रगट हो चुका है) वही मुमुक्षुओंके लिए मार्गदर्शक और अवलम्बनरूप है। एक-एक पत्र में कोई
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