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________________ गुणश्रेणिरचना अपकर्षण करि ऊपरिके वा नीचेके निषेकनिविर्षे द्रव्य देना होइ तहां इस कथनके अनुसारि विधान जानना । जिस निषेकका द्रव्य ग्रह्या होइ तिस निषेकके द्रव्यकौं इहां निक्षेपरूप निषेक कहे तिनिविर्षे तो दीजिए है अर अतिस्थापनरूप निषेक कहे तिनिविर्षे न दीजिए है । बहुरि बहुत निषेकनिका द्रव्य एकै काल ग्रहण करिए तौ तहां भी जुदे जुदे निषेकनिके द्रव्य देनेका वा न देनेका विधान इहां कह्या कथनके अनुसारि जानना । इहां जो व्याख्यान कीया तिसविर्षे मंदबुद्धीनिके समझावनेके अथि अंकसंदष्टि आदि कथन कीया है अर लब्धिसारको संस्कृत टीकविर्षे न था तिसविर्षे कहीं चूक होइ सो ज्ञानी जन सवारि शुद्ध करियो ॥६७।। या प्रकार प्रसंग पाइ कथनकरि अब गुणश्रेणिका विधान कहिए है उदयाणमावलिम्हि य उभयाणं बाहरम्मि खिवणहूँ । लोयाणमसंखेज्जो कमसो उक्कड्डणो हारो' ॥६८॥ उदीयमानानामावलौ चोभयानां बाह्ये क्षेपणार्थम् । लोकानामसंख्येयः क्रमश उत्कर्षणो हारः॥६८।। सं० टी०-गुणश्रेणि निर्जरार्थमपकृष्टानामुदयवतामेव कर्मणां मिथ्यात्वादीनां उदयावल्यां निक्षेपणार्थमसंख्येयलोकमात्रो भागहारो भवति । चशब्दात्तबहुभागमात्र द्रव्यस्योदयावलिबाह्यऽपि निक्षेपो भवति । उदयवतामेवोदयावल्यां निक्षेप इति नियम उक्तः । उभयेषामुदयवतामनुदयवतां च उदयावलिबाह्य क्षेपणार्थमपकर्षणनामा भागहारो भवति । क्रमश इति वचनात् पल्यासंख्यातभागमात्रश्च भागहारो भवतीति व्यज्यते । वक्ष्यमाणभागहारक्रमस्य तथव दर्शनात ॥६८॥ सं० टी०–जिनि प्रकृतिनिका उदय पाइए है तिनहीके द्रव्यका उदयावलीविर्षे निक्षेपण हो है। ताके अर्थि असंख्यात लोकका भागहार जानना । बहुरि जिनि प्रकृतिनिका उदय पाइए वा जिनिका उदय न पाइए तिनि दोऊनिके द्रव्यका उदयावलीतैं बाह्य गुणश्रेणिविष वा उपरितन स्थितिविर्षे निक्षेपण हो है । ताके अथि अपकर्षण भागहार जानना । क्रमशः इस वचनकरि पल्यका असंख्यातवाँ भागका भी भाग प्रकट कीजिए है । सो इस कथनकौं आगें व्यक्तकरि कहै हैं ॥६८॥ विशेष—यहाँ अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर उदयवाली और अनुदयवाली प्रकृतियोंका गुणश्रेणिनिक्षेप किस विधिसे होता है इस विषयका स्पष्टीकरण किया गया है । यहाँ बतलाया है १. अपुवकरणपढमसमए दिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्ध ओकड्डुक्कड्डुणभागहारेण खंडेयूण तत्थेयखंडमेत्तदव्यमोकड़िय तत्थासंखेज्जलोगपडिभागियं दबमुदयावलिब्भंतरे गोपुच्छायारेण णिसिंचिय पुणो सेसबहभागदव्वमुदयावलिबाहिरे णिविखवमाणो उदयावलियबाहिराणंतरट्रिदीए असंखेज्जसमयपबद्धमेत्तदन्वं णिसि वदे । तत्तो उपरिट्टिदीए असंखेज्जगुणं देदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेढोए णिसिंचदि जाव अपुवाणियट्टिकरणद्धाहितो विसेसाहियगुणसे ढिसीसयं ति। पुणो उवरिमाणंतरट्टिदोए असंखेज्जगुणहीणं देदि । तत्तो परं विसेसहोणं णिक्खवदि जाव चरिमट्टिदिमधिच्छावणावलियमेत्तेण अपत्तो त्ति । एवमपुवकरणविदियादिसमएसु वि गुणसेढिणिक्खेवक्कमो परूवेयव्वो । णवरि गलिदसेसायामेण णिसिंचदि त्ति वत्तव्वं । जयध० भाग १२, १० २६५ । ध० पु० ६ पृ० २२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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