________________
१४
हाथी को लेने के लिए अपनी विशाल सेना के साथ निकल पड़ा । पद्मनाभ को भी जब इस बात का पता लगा तो वह भी अपनी विशाल सेना के साथ निकल पड़ा। मार्ग में दोनों के बीच भयानक युद्ध हुआ। पद्मनाभ के एक सुभट ने युद्ध में पृथ्विपाल का सिर काट दिया । कटे हुए सिर को ले कर वह अपने राजा पद्मनाभ के पास पहुंचा । पृथ्विपाल के कटे सिर को देखकर पद्मनाभ को वैराग्य हुआ । वह अपने पुत्र स्वर्णनाभ को राजगद्दी पर अधिष्ठित कर बड़े उत्सव के साथ दीन दुखियों को दान देता हुआ श्रीधर मुनि के पास पहुँचा और सर्व सावद्य का त्याग कर साधु हो गया। अपने गुरु के समीप रह कर उसने आगम का अध्ययन किया । पश्चात् लघुसिंह निष्क्रीडित जैसी कठोर तपस्या की । तप तथा बीस स्थानों की सम्यग् आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्तिम समय में संलेखना पूर्वक देह का त्याग कर बैजयन्त नामक अनुत्तर विमान में तेतीस सागरोपमवाला महर्द्धिक देव बना । (गा. ३५३३) (सातवां पर्व पृ. १३६) तीर्थंकर भव
भरतक्षेत्र के पूर्वदेश में चन्द्रपुरी नामकी समृद्ध नगरी थी । चन्द्र जैसे सौम्य मुखवाली अनेक तरुणियां उसमें निवास करती थी अतः यह नगरी चन्द्रानना के नाम से प्रसिद्ध हुई । वहां पराक्रमी महासेन नाम का राजा राज्य करता था। उसकी अत्यन्त रूपवती शीलगुण से संपन्ना लक्ष्मणा नाम की महारानी थी। पद्ममुनि का जीव वैजयन्त विमान से चवकर चैत्रमास की कृष्णा पंचमी के दिन अनुराधा नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग होने पर शुभवेला में महारानी लक्ष्मणा के उदर में अवतरित हुआ। भगवान के चवनकाल के छः महिने शेष थे तब से इन्द्र ने धनदेव को आदेश देकर प्रतिदिन आठ करोड स्वर्ण की वर्षा करवाई । भगवान के गर्भ में आते ही सुखशय्या पर सोई हुई महारानी ने हाथी, वृषभ, केशरिसिंह, महालक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, महाध्वज, पूर्णकुंभ, महासरोवर, क्षीरसागर, विमान, निधूर्म अग्नि और रत्नराशि ये चौदह महास्वप्न देखे । स्वप्न देखकर महारानी जागृत हुई । वह अपने पति के पास गई और उसने अपने स्वप्न का वृतान्त सुनाया । स्वप्न सुनकर महासेन राजा ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा – देवी ! तुम त्रिलोकपूज्य महाप्रभावशाली पुत्र रत्न को जन्म दोगी । दूसरे दिन राजा ने स्वप्नपाठकों को बुलाया और महारानी के स्वप्नों का फल पूछा । स्वप्नपाठकों ने अपने शास्त्रों के अनुसार स्वप्नों का फल बताते हुए कहा - राजन् ! महारानी त्रिलोक पूज्य तीर्थंकर भगवान को जन्म देगी । महाराजा और महारानी स्वप्न का फल सुनकर प्रसन्न हुए । राजा ने स्वप्न पाठकों को बड़ा दान देकर उन्हें बिदा किया। आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का गर्भ में अवतरण हुआ। उस अवसर पर इन्द्र का आसन चलायमान हुआ । इन्द्र ने अवधिज्ञान से भगवान का चवण जानकर वह भगवानकी माता के पास पहुँचा । माता को वन्दन कर माता और जिन भगवान की स्तुति की। साथ में आये हुए देवों को योग्य सूचन देकर माता और जिन भगवान की रक्षा का आदेश दिया। भगवान के आगमन से सर्वत्र शान्ति का वातावरण फैल गया । राज्य की समृद्धि बढने लगी। नौ मास साढ़े सात रात्रि दिवस के बीतने पर पौष महिने की कृष्णा बारस के दिन अनुराधा नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग आने पर माता ने सुख पूर्वक पुत्र को जन्म दिया। उस अवसर पर छप्पन दिग्कुमारिकाएँ जिनजननी के प्रसव के समय उपस्थित हुई और जिनमाता की परिचर्या करने लगी । आसन के चलायमान होने पर चौसठ इन्द्र भी अपने अपने विमान में बैठकर विशाल देव परिवार के साथ भगवान के समीप पहुंचे। उन्होंने जिनमाता और बाल प्रभु को वन्दन कर उनकी स्तुति की । उसके पश्चात्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org