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प्रस्तावना
मुमुक्षुपना, इन साधन-चतुष्टयोंसे सम्पन्न व्यक्तिके ही होता है। इसके होनेपर ब्रह्मका साक्षात्कार होता है। इस तरह मोक्षमें परमब्रह्मके साथ एकीभाव हो जाता है । [ उत्तरपक्ष ]
१३. यह परमब्रह्माद्वैत प्रत्यक्ष विरुद्ध है। प्रत्यक्षसे बाह्य अर्थ परस्पर भिन्न और सत्य दिखायी पड़ते हैं, इसलिए परमब्रह्माद्वैत नहीं माना जा सकता।
१४. स्वप्नसंवेदनमें भी क्रिया और कारकोंका भेद होता ही है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि स्वप्नसंवेदनकी तरह एक ब्रह्ममें ही भेद दिखायी पड़ता है।
१५. भेदावभासी प्रत्यक्षको इन्द्रजाल आदि प्रत्यक्षकी तरह भ्रान्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन्द्रजाल तो अत्यन्त भ्रान्त है, इस बातको बच्चे भी जानते हैं। इसके विपरीत 'कुम्भकार दण्ड आदिसे घड़ा बनाता है और 'वह हाथसे भात खाता है' इत्यादि क्रिया-कारक भेद भ्रान्त नहीं हैं, कारण यहां कोई बाधक नहीं है।
१६. भेदको माने विना बाधक सम्भव नहीं; जैसे शक्तिकामें रजत भ्रान्तिके लिए शक्तिकाका भेद मानना आवश्यक है।
१७, १८. 'आंख खोलते ही निविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा सत्ता सामान्यके रूपमें परमब्रह्मका प्रत्यक्ष होता है', यह मानना ठीक नहीं; क्योंकि नित्य, निरवयव, व्यापक सत्ता सामान्यका कभी भी अनुभव नहीं होता। आँख खोलनेपर भी प्रतिनियत देश और प्रतिनियतमें पदार्थोंका देखा जाना काल आदि विशेषों सहित ही सामान्यका अनुभव होता है। जिस तरह विशेष सामान्यके बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार सामान्य विशेषके बिना नहीं रह सकता ।
६ १९. 'प्रत्यक्ष विधि ( सद्भाव ) को विषय करनेवाला है निषेधको नहीं, इसलिए उससे ब्रह्माद्वैतका निषेध नहीं किया जा सकता,' यह मानना ठीक नहीं; क्योंकि विधिके समान निषेध भी प्रत्यक्षका विषय सम्भव है।
२०. हेतुसे ब्रह्माद्वैतकी सिद्धि करनेपर साध्य और हेतुका द्वैत हो जायेगा।
६२१. हेतु और साध्यमें सर्वथा तादात्म्य मानना उचित नहीं; क्योंकि सर्वथा तादात्म्य माननेपर उनमें साध्य-साधनभाव नहीं बन सकता।
२२. आगमसे अद्वैतकी सिद्धि माननेपर आगम और ब्रह्मके द्वैतका प्रसंग आयेगा। ६२३. आगमको ब्रह्मका स्वभाव माननेपर ब्रह्मकी तरह आगम भी असिद्ध हो जायेगा।
६ २४. 'सर्व वै खल्विदं ब्रह्म' इस वचनसे भी द्वैतको ही सिद्धि होती है। सर्व (प्रसिद्ध संसार ) और ब्रह्म ( अप्रसिद्ध ) के भेदसे द्वैत मानना पड़ेगा।
६ २५. स्वसंवेदन-द्वारा पुरुषाद्वैतकी सिद्धि माननेपर स्वसंवेदन और पुरुष ( ब्रह्म ) का द्वैत मानना होगा। स्वसंवेदनको पुरुषसे अभिन्न माननेपर वह साधन नहीं बन सकता।
२६. पुरुषाद्वैत विज्ञानाद्वैतकी तरह स्वतः सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि स्वरूपका स्वतः ज्ञान नहीं होता।
२७. यदि पुरुषाद्वैतकी सिद्धि स्वतः मान भी ली जाये तो उसी तरह द्वैत भी स्वतः सिद्ध मान लेना चाहिए। स्वत: सिद्धि मानना तो मनमानी है। इस तरह तत्त्वोपप्लव और नैरात्म्य भी सिद्ध हो सकता है।
इस तरह परमब्रह्मको सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं ।
६२८. 'प्रत्यक्ष आदि मिथ्या हैं, क्योंकि भेदप्रतिभासी है, जैसे स्वप्न प्रत्यक्ष आदि।' इस अनुमानमें पक्ष, हेतु और दृष्टान्तके भेद-प्रतिभासको अमिथ्या माननेपर उसी हेतु भेद-प्रतिभासके साथ व्यभिचारी हो
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