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________________ ०००००० विषय-सूची पृथिव्यादिको बुद्धिमद्धेतुक माननेमें दोष ईश्वरको कर्ता मान भी लें तो वह विचित्र घोर दुःख क्यों देता है। यदि दुःखमें प्राणियोंके पाप कारण हैं तो तनुकरणादिमें भी ईश्वरको __कारण माननेको आवश्यकता नहीं अचेतन कर्म मदिरा आदिकी तरह तनुकरणादि उत्पन्न करने में कारण हैं तनुकरणादि एक बुद्धिमद्धेतुक हैं या अनेक बुद्धिमद्धेतुमें सिद्ध-साधन और अनैकान्तिक दोष अधिकरण सिद्धान्तन्याय भी ठीक नहीं अनेक दोषयुक्त होनेसे वैशेषिकशासन इष्ट-विरुद्ध नैयायिकशासन-परीक्षा [पूर्वपक्ष ] प्रमाण-प्रमेय-आदि तत्त्वोंके ज्ञानसे मोक्ष मक्तियोग प्रादि योगत्रय । सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य और सायुज्य मुक्ति यम, नियम आदि योगके आठ अंग [ उत्तरपक्ष ] नैयायिक मत प्रत्यक्ष-विरुद्ध है वैशेषिकशासनकी तरह इसमें भी अनेक दोष नैयायिक सम्मत षोडशपदार्थव्यवस्था संभव नहीं योग आगम मी प्रमाण नहीं नैयायिक-वैशेषिक सम्मत सब दृष्टेष्ट-विरुद्ध मोमांसक-भाट्टप्राभाकरशासन-परोक्षा [पूर्वपक्ष ] माहोंके अनुसार पृथिव्यादि ग्यारह पदार्थ हैं गुण आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं प्राभाकरों के अनुसार पृथिव्यादि नव पदार्थ पदार्थोंके याथात्म्य ज्ञानसे मोक्ष नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निषिद्ध अनुष्टान स्वर्ग और अपवर्गके साधन मुमुक्षको प्रवजित होना आवश्यक नहीं माहोंके अनुसार मोक्षार्थीको काम्य और निषिद्ध, अनुष्टान वर्जित [उत्तरपक्ष] मीमांसक मत प्रत्यक्ष-विरुद्ध नित्य, निरन्वय, व्यापक सत्ता सामान्य प्रत्यक्ष-विरुद्ध सत्ता सामान्य मानने में अनेक दोष सामान्य और व्यक्तिका तादात्म्य माननेमें दोष सामान्यकी सिद्धिमें दिये गये हेतु दोषपूर्ण सत्ता सामान्यका विस्तारसे खण्डन rrrrrrm cccccccccccc GSSSC CEC coc Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001567
Book TitleSatyashasana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages164
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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