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परम्पराओं की भिन्नता, अनुश्रुतियों का अन्तर एवं समय के दीर्घ व्यवधान के कारण कथा के मूल स्त्रोतों को या उनमें रहे हुए ऐतिहासिक तथ्यों को खोजना कठिन ही नहीं बल्कि अति दुष्कर है। क्योंकि प्राचीन कथाकारों ने कथा या चरित्र के ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा कर उसे 'शिवम् सुन्दरम् बनाने का विशेष प्रयत्न किया किया 1
इसी सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर आचार्य श्रीचन्द्रसूरि ने भी तीर्थंकर चरित्र के मूलस्त्रोत आगमों से जो कुछ भी प्राप्त हो सके उन्हें ग्रहण कर एवं गुरुपरम्परा से प्राप्त अनुश्रुतियों एवं उत्तरवर्ती साहित्य के आधार अपने चरित्र ग्रन्थ को पल्लवित पुष्पित एवं विकसित किया है।
तीर्थंकर चरित्र के मूल स्त्रोत आगम-
तीर्थकरों के जीवन पर प्रकाश डालने वाले प्राचीनतम ग्रन्थ जैनागम है । भ. मुनिसुव्रत के विषय में आगमों में अत्यल्प मात्रा में जानकारी मिलती है । वर्तमान में उपलब्ध जैनागम अंग, उपांग, छेद मूल एवं प्रकीर्णक इन पाँच विभागों में विभक्त है । अंगसूत्र आचारांग सूत्रकृतांग ऋषिभाषित जैसे प्राचीन आगमों में भ. मुनिसुव्रत का कहीं भी नामोल्लेख नहीं हुआ है। तृतीय अंगसूत्र स्थानांग के पाँचवें स्थान में मुनिसुव्रत भ के पाँच कल्याणक श्रवण नक्षत्र में होने का एवं चतुर्थ अंग समवाय के ५० वें समवाय में भ. मुनिसुव्रत की ५०००० साध्वियाँ एवं २० समवाय में उनकी ऊँचाई २० धनुष होने का उल्लेख । समवायांग के १५७ वें सूत्र में जो संग्रहणी गाथा है उनमें उनके विषय में निम्न उल्लेख है -- "भगवान मुनिसुव्रत बीसवें तीर्थंकर थे। उनके पिता का नाम सुमित्र एवं माता का नाम पद्मा था । पूर्वभव का नाम नन्दन था । मनोरमा नाम की शिबिका ( पालखी) में बैठकर राजगृह के बाहर उद्यान में एक हजार पुरुषों के साथ षष्ठ तप करके दीक्षा ग्रहण की थी। दूसरे ऋषभसेन के घर भगवान ने क्षीरान से पारणा किया। इनके प्रथम शिष्य कुम्भ एवं प्रथम शिष्या पुष्पवती थी । अपने शरीर से बाहरगुणा ऊँचे चम्पकवृक्ष के नीचे श्रवण नक्षण के योग में उन्होंने केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त किया ।
पाँचवें अंगसूत्र भगवती ( ५७६ ) में भगवान मुनिसुव्रत विषयक दो उल्लेख मिलते हैं - एक बार भगवान् मुनिसुव्रत हस्तिनापुर पधारे। वहाँ गंगदत्त नामक श्रमणोपासक ने भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो प्रव्रज्या ग्रहण की। उसने अनेक प्रकार की तपस्याओं द्वारा अपनी आत्मा निर्मल बनाया। अन्त में मासिक संलेखणा के साथ मृत्यु प्राप्त कर महाशुक्र में देव रूप में उत्पन्न हुआ । ( सोलहवां शतक उद्दे. ५)
दूसरा उल्लेख कार्तिक सेठ का आता है। एक बार भ. मुनिसुव्रत हस्तिनापुर पधारे। वहाँ कार्तिक नामक श्रेष्ठी रहता था । उसने भ. मुनिसुव्रत का उपदेश सुना । उपदेश से प्रभावित हो उसके एक हजार श्रेष्ठियों के साथ दीक्षा ग्रहण की और कठोर तप किया। अन्त में मासिक संलेखणा के साथ मरकर शक्रेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । (भ. श. १८, उद्दे. २)
आगम ग्रन्थों में केवल ये ही उल्लेख मिलते हैं । भगवान् मुनिसुव्रत के नौ भव आगम में नहीं मिलते। आगम ग्रन्थों पर लिखी गई नियुक्ति भाष्य, चूर्णी एवं टीका में भी भ. मुनिसुव्रत विषयक उल्लेख अत्यल्प ही मिलते हैं । आ. भद्रबाहु द्वारा निर्मित आवश्यक नियुक्ति में एवं उनपर आ. हरिभद्रसूरि ने एवं आचार्य मलगिरि ने अपनी टीकाओं में सभी तीर्थंकरों के साथ भ. मुनिसुव्रत विषयक निम्न विवरण दीया है। वह इस प्रकार है
१. भगवान् मुनिसुव्रत के नाम की सार्थकता ( १०९५)
२.
भगवान मुनि सुव्रत का वर्ण
३.
ऊँचाई
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कृष्ण
२० धनुष
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