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को छीन लेगा। राजा ने जब यह सुना तो उसने अनुपमा देवी को खत्म करने के अनेक उपाय किये। अनुपमा देवी भागकर एक पल्लिपति की पत्नी बनी। उसके उदर से उत्पन्न कुन्तसिह ने हर्षपाल को मार डाला और उसके राज्य को छिन लिया। इस कथा में कर्मफल एवं भवितव्यता की प्रबलता बताई है। ..... चौथी कथा चन्द्रकीतिराजा की है। चन्द्रकीति पूर्व जन्म में एक सामान्य गृहपति था उसने एक बार बड़ी श्रद्धा से जिन पूजन किया फलस्वरूप दूसरे भव में चन्द्रकीर्ति नाम का प्रभावशाली राजा बना ।
पाँचवीं कथा राजजीमती की है। राजीमती रामदेव नामक एक धनिक की पत्नी थी। रामदेव जिनधर्म का पालन करता था और निरन्तर जिन पूजा कर पुण्य उपार्जन करता था। राजीमतो जिनधर्म को नहीं मानती थी। रामदेव ने राजीमती को जिनधर्म की उपासिका बनाने का बड़ा प्रयत्न किया किन्तु वह अपने प्रयत्न में सफल नहीं हुआ अन्त में उसने दूसरी जैन कन्या से विवाह किया। वह जैन कन्या बड़ी श्रद्धा भक्ति पूर्वक जिन पूजनादि धार्मिक क्रिया करती थी। उसकी श्रद्धा भक्ति को देख रामदेव उस पर अधिक प्रेम करने लगा । अन्त में अपने पति का प्रेम सम्पादन करने के लिए राजीमती कपटपूर्वक जिनधर्म का पालन करने लगी। अन्त में राजीमती मरी और एक दरिद्र किसान के घर सातवीं पुत्री के रूप में जन्मी। यह माता-पिता को इतनी अप्रिय थी कि उसका नामकरण भी नहीं किया। सब लोग उसे निर्नामिका कहने लगे। अपने कुटुम्ब से उपेक्षित निर्नामिका किसी तरह इधर उधर से मांग कर अपना जीवन निर्वाह करने लगी। एक बार बह एक जैन साध्वी के सम्पर्क में आई। और उनका उपदेश सुनकर वह साध्वी बन गई। साध्वी बनने के बाद उसने कठोर तप किया और समाधि पूर्वक मरकर रत्नचड़ खेचरेन्द्र के घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। उसका नाम प्रभावती रखा गया। युवावस्था में प्रभावती का विवाह चन्द्रकीर्ति नामक राजा के साथ हुआ।
छटी कथा जिनधर्म पर अत्यन्त श्रद्धा शील कार्तिक सेठ की है। परिव्राजक से अपमानित कार्तिक सेठ भ. मुनिसुव्रत के समीप दीक्षा लेता है और समाधिपूर्वक मरकर सौधर्मेन्द्र बनता है।
सातवीं कथा खन्दक आदि पाँच सौ मुनिवरों की है। खंदक कुमार से अपमानित पालक मंत्री अपमान का बदला लेने के लिए उन्हें पानी में पिलवा देता है। ४९९ मुनि तो समभाव से निर्वाण प्राप्त करते हैं किन्तु खन्दक ऋषि निदान पूर्वक मरता है। मरकर अग्निकुमार देव बनता है। अपने पूर्वजन्म का वैर लेने के लिए पालक सहित समस्त नगर को भस्म करता है।
आठवीं कथा शासन प्रभावक विष्णु मुनि की है। जिनधर्म के द्वेषी नमुचि को शिक्षा देने के लिए विष्णुमुनि ने अपना विराट रूप बनाया था और जिनशासन की प्रभावना की थी।
नौवी कथा भृगुकच्छ (भरोच) के प्रसिद्ध तीर्थस्थल अश्वावबोध की उत्पत्ति की है।
इस प्रकार के कथानकों से आचार्य श्रीचन्द्रसूरि ने अपने द्वारा रचित चरित को लोकप्रिय एवं सुरुचि पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है।
भ. मुनिसुव्रत स्वामी--समीक्षात्मक अध्ययन--
मुनिसुव्रत स्वामि चरित की कथावस्तु से स्पष्ट है कि ग्रन्थकार प्राचीन भारतीय संस्कृति की दो प्रमुख विचारधाराओं से परिपूर्ण रूप से प्रभावित हैं। एक पुनर्जन्म एवं कर्मफल की सम्बद्ध शृंखला तथा दुसरी आत्मशोधन द्वारा मुक्ति की प्राप्ति । सम्पूर्ण ग्रन्थ में इन्हीं दो विचारधाराओं का ही प्रस्फुटन हुआ है। .. इस चरित ग्रन्थ के मुख्यनायक है भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी । इस ग्रन्थ में यह बताया गया है कि भगवान मुनिसुव्रतस्वामी ने अपने प्रथम शिवकेतु के भव में किस प्रकार मिथ्यात्व का परित्याग कर सम्यकत्व ग्रहण किया
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