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________________ ने उसे तीन दिन का राज्य दिया। उस समय सुव्रताचार्य हस्तिनापुर में विराजमान थे। चातुर्मास काल था। सुद्रताचार्य से बदला देने का अच्छा अवसर जान उसने जैन मुनियों को बुलाया और कहा - " तुम इसी वक्त मेरा राज्य छोड़कर चले जाओ मुनियों ने कहा- "चातुर्मास काल है अत: जैनमुनि चातुर्मास में बिहार नहीं करते चातुर्मास पूरा होने पर हम यहाँ से चले जायेंगे ।" नमुचि ने कहा- "मैं तुम्हें एक दिन भी रहने नहीं दूंगा । यदि मेरी आज्ञा विरुद्ध रहे तो तुम्हें प्राणान्त दण्ड दूंगा।" इस महान संकट से बचने के लिए सुव्रताचार्य ने छोटे मुनि को विष्णुमुनि के पास भेजा। विष्णु मुनि तुरन्त लब्धि बल से छोटे मुनि के साथ हस्तिनापुर आये। विष्णु मुनि नमुचि के पास आये और बोले -- "वर्षाकाल तक तुम मुनियों को यहीं रहने दो। बाद तुम जैसा कहोगे वैसा ही होगा । नमुचि ने कहा " एक दिन की भी रहने की आज्ञा नहीं है। यदि जिन्दा रहना चाहते हो तो तुरंत निकल जाओ वरना सबको प्राणान्त दंड मिलेगा ।" इस पर विष्णुकुमार को क्रोध आया। उन्होंने कहा- अच्छा: केवल तीन पैर स्थान दे दो । नमुचि ने उत्तर दिया- “ अगर इतने स्थान से बाहर किसी को देखा तो सिर काट डालूंगा ।" मुनि विष्णुकुमार ने वैयिलब्धि के द्वारा अपने शरीर को बढ़ाना शुरू किया। उनके विराट रूप को देखकर सभी डर गये। इसी कारण पृथ्वी भी काँप उठी । नमूचि ने क्षमा याचना की । सहृदय मुनि ने उसे क्षमा कर दी । संकट दूर होने पर शान्त चित्त होकर विष्णुमुनि फिर तपस्या करने लगे। महापद्म चक्रवर्ती पद को छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक कर रहा है। भगवान् मुनिसुव्रत से भूकंप का कारण सुनकर राजा और प्रजा दोनों प्रसन्न हुए और भक्ति से विष्णुमुनि को वन्दन किया । १७ कुछ काल भृगुकच्छ में रहकर भगवान ने अन्यत्र विहार कर दिया अपना निर्वाणकाल समीप जानकर भगवान् सम्मेत शिखर पर पधारे। वहाँ उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ एक महिने का पादोपगमन संथारा किया। एक मास के अन्त में ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के दिन श्रवण नक्षत्र के योग में रात्री के समय हजार मुनियों के साथ भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया। इन्द्रादि देवों ने भगवान् का निर्वाण महोत्सव किया। इन नौ भवों के वर्णनों में आचार्य श्री ने बीच बीच में कुछ अवान्तर कथाएँ भी दी है। प्रथम कथा उपकारी एवं प्रत्युपकारी के ऋण से मुक्त होने के वाले पोपटों की है। इस कथा में बताया गया है कि पशुपक्षी भी अपने उपकारी के प्रति उऋण होने का प्रयत्न करता है तो फिर मानव के लिए कहना ही क्या। यदि मानव होकर भी अपने उपकारी को भूल जाता है तो वह पशु से भी हीनतम है। यह कथा पंचतंत्र की कपोत कथा का अंशत: अनुकरण करती है इस कथा का सार यह है— एक गहन वन में विशाल वृक्ष के कोटरों में पोपटों का समूह निवास करता था उसी वृक्ष के नीचे एक लता उग आई । वह बढ़ते बढ़ते वृक्ष की शाखा तक पहुँच गई। वह लता भी धीरे धीरे जाड़ी और मजबूत होने लगी । लता का सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति वृक्ष पर चढ़कर पोपटों का बिनाश कर सकता है यह बात एक वृद्ध पोपट के ध्यान में आई। उसने एक दिन अपने युवा साथियों से कहा - " तुम अपनी तीक्ष्ण चोच से इस लता को काट डालो वरना यह लता ही हमारे विनाश का कारण बन जायेगी।" वृद्ध की बात को युवा पोपटी ने हंस कर टाल दी। एक दिन एक शिकारी वहाँ पहुँचा। विशाल वृक्ष पर सैकड़ों पोपटों के घोसले को देख उसका मन ललचा गया। वृक्ष बहुत ऊँचा था उस पर चढ़ना भी कठिन था। तलाश करते हुए उसकी दृष्टि जाड़ी लता पर पड़ी। वृक्ष पर चढ़ने का सुगम उपाय उसे मिला गया। सब पोपट जब दाना चुगने के लिए अन्यत्र गये तब वह लता के सहारे वृक्ष पर चढ़ गया और वृक्ष पर जाल बिछा दिया। जब पोपट शाम के समय वापस लौटे आवे तो सबके सब जाल में फँस गये। अब सबको वृद्ध की बात न मानने का प्रस्तावा होने लगा। सब ने मिलकर वृद्ध से विनती की कि हमें बचाने का कोई उपाय बताओ। वृद्ध ने एक उपाय बताते हुए कहा- तुम लोग अपनी सांस को रोताकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001564
Book TitleMunisuvratasvamicarita
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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