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________________ प्रभाव से मल्ली आदि १८ गणधर हए । भगवान की देशना के पश्चात मल्ली गणधर ने देशना दी । मल्ली गणधर के प्रवचन के बाद देवेन्द्र, असुरेन्द्र व नरेन्द्र त्रिलोकपति को नमस्कार कर एवं स्तुति कर स्व-स्व-निवास स्थान को चले गये । भगवान विहार कर श्रावस्ती नगरी में पधारे । वहां जितशत्र नाम का राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम धारिणी था और स्कन्दक नाम का पुत्र था । उसकी बहन का नाम पुरन्दरयशा था । वह कुम्भकारकड नगर के राजा दंडकी के साथ ब्याही गई थी। दण्डकी राजा का पालक नाम का मंत्री था । मुनिसुव्रत भगवान का उपदेश सुन स्कन्दककुमार श्रावक बना । किसी समय पालक मंत्री श्रावस्ती आया था । स्कन्दककुमार के साथ धार्मिक चर्चा में हार गया । इससे पालक को स्कन्दक के प्रति रोष हो गया । स्कन्दककुमार पांच सौ के साथ दीक्षित हो, भगवान मुनिसुव्रत के साथ रहने लगा । वह बहुत शीघ्र बहुश्रुत बन गया । एकबार भगवान से स्कन्दक मुनि ने अपनी बहन पुरन्दर जसा को दर्शन देने के लिए कुंभकारकड नगर जाने की आज्ञा मांगी । भगवान ने कहा- वहां मरणान्त कष्ट होगा, अतः तुम न जाओ।" स्कन्दक ने भगवान से पूछा - 'हम पांचसी में कौन आराधक और कौन विराधक है ?" भगवान ने कहा – “तुझे छोड़कर सभी आराधक हैं । स्कन्दक मुनि भगवान की आज्ञा न होने पर भी पांचसौ साधुओं के साथ कुम्भकार नगर पहुंचा और एक उद्यान में ठहरा। पालक मंत्री को स्कन्दक मुनि के आने का समाचार मिला। उसने बदला लेने का सुन्दर अवसर पाया। अपने गुप्तचरों द्वारा उसने उद्यान में पहले ही शस्त्रों को जमीन में गडवा दिया था। वह पालक राजा के पास पहुंचा और बोला-स्वामी ! स्कन्दक पांच सौ सुभटों के साथ साधवेश में आपकी हत्या करने और आपके राज्य पर अधिकार करने आया है। उन्होंने बगीचे में जमीन के भीतर शस्त्र गाड़कर रखे हैं। राजा ने गुप्तरूप से पता लगाया तो उद्यान में सचमुच शस्त्र मिल गये। राजा को मंत्री की बात पर विश्वास हो गया । वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने पांचसौ साधुओं को पालक को सौंप दिये और कहा कि तुम इन साधुओं को इच्छानुसार दण्ड दे सकते हो। पालक मंत्री ने सभी साधुओं को घानी में पिलवा दिया। केवल एक छोटा साधु पालक से कहा-"मेरे सामने इसे मत पीलो। पहले मुझे पील डालो।" स्कन्दक मुनि की बात पालक ने नहीं मानी और उसे उनके सामने ही घानी में पील दिया। स्कन्दक मनि को पालक की इस क्रूरता पर बड़ा क्रोध आया और उसने निदान किया कि "मैं मरने के बाद इस नगर का राजा सहित विनाश करूं"। पालक ने स्कन्दक मुनि को भी पील दिया। मुनि स्कन्दक मरकर अग्निकुमार देव बना । पुरन्दरयशा को जब भाई के घानी में पीले जाने के समाचार मिले तो वह साध्वी बन गई स्कन्दक अग्निकुमार ने राजा सहित नगर को भस्म कर दिया। ४९९ मनियों ने समता भाव से मोक्ष प्राप्त किया। थावस्ती से विहार कर भगवान् ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए राजगह पधारे वहाँ नीलगहा नामक उद्यान में ठहरे। उद्यानपाल से भगवान का आगमन सुन वहाँ के राजा दक्ष ने बड़े वैभव के साथ भगवान के दर्शन किये और उपदेश सुना। वहां से भगवान परिवार के साथ हस्तिनागपुर पधारे। वहाँ कातिक नाम का सम्यकत्व धारी श्रावक श्रेष्ठी रहता था। वह अपने धर्म पर अत्यन्त दृढ़ था। अपने देव गुरु धर्म के सिवाय वह किसी के भी सामने नहीं झुकता था। एक बार उस नगर में भगवावस्त्रधारी संन्यासी आया। उसने अपने पाखण्ड से लोगों पर अच्छा प्रभाव जमाया। वह मासोपवासी था। महिने के पारने के अवसर पर नगर के सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियो ने संन्यासी को निमन्त्रित किया। सम्यकत्वधारी श्रावक होने से कार्तिक सेठ ने संन्यासी को आमन्त्रित नहीं किया और न उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001564
Book TitleMunisuvratasvamicarita
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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