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के पूर्ण होने पर रानी विश्वकान्ता ने सुन्दर पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुत्र जन्म को कुबरयक्ष की कृपा मानकर माता-पिता ने बालक का नाम कुबेरदत्त रखा। कुबेरदत्त ने सभी प्रकार की शिक्षा प्राप्त की। वह युवा हुआ। उसका सौ रुपवती राजकन्याओं के साथ विवाह हआ। कुबेरदत्त को सभी तरह से योग्य जानकर राजा ने उसे युवराज पद पर अधिष्ठित किया। उसे कुमार भुक्ति के लिए मंगलपुर देश दिया गया। बुद्धिधन नाम का मंत्री पुत्र उसका मित्र बन गया ।
एक दिन रणधवल नामके दण्ड नायक ने दूत के साथ पत्र देकर सन्देश कहलवाया कि सीहबल परबल एवं खस नामक राजा ने सीमान्त प्रदेश पर कब्जा कर लिया है। उनके प्रबल सैन्य शक्ति के सामने हमारी सेना हतप्रभ हो गई है । आप हमारी सहायता करे। दण्डनायक का लेख पढ़ते ही विश्वकन्त बड़ा ऋद्ध हआ। राजकुमार कुबेरदत्त को जब इस बात का पता चला तो वह पिताकी आज्ञा प्राप्त कर विशाल सेना के साथ युद्ध के लिए चल पड़ा। वह मंगलपुर पहुँचा और रण को शल सेतीनों सामन्तो को पराजित कर उसने सीमा पर शान्ति प्रस्थापित की। तत्पश्चात् कुबेरदत्त पराजित परबलसिंह एवं खस राज को साथ में लेकर अपनी विशाल सेना के साथ अपने नगर की ओर लोटा । स्व नगर लौटने पर राजा और प्रजा ने कुमार कुबेरदत्त का बड़ा सत्कार किया।
एक दिन विमलजस सूरि अपने शिष्य परिसार के साथ विश्वपुर पधारे और नगर के बाहर उद्यान में ठहरे । राजा विश्वकान्त, परबलसिंह, खस तथा राजकुमार कुबेरदत्त एवं नगर जन आचार्य का उपदेश सुनने के लिए उद्यान में पहुँचे। आचार्य का उपदेश सुनकर चारों ने जैनधर्म स्वीकार किया। प्रजा ने भी यथाशक्ति व्रत लिये। कुछ दिन तक उपदेश देकर आचार्य श्री ने वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया।
खस राजा और परबलसिंह कुछ दिन तक विश्वपुर में ही रहे। वहाँ से राजाज्ञा प्राप्त कर वे अपनी राजधानी मंगलपुर लौट आये। कुछ दिनों के बाद खस राजा ने विशाल जिन मन्दिर का निर्माण किया। जिन
पिना की। उसकी प्रतिष्ठा उत्सव में सम्मलित होने के लिए कुबेरदत्त को आमंत्रित किया। कुमार कुबेरदत्त राजा के आमंत्रण से मंगलपुर पहुँचा। वहाँ नूतन जिनालय में प्रवेश कर भगवान् की विधिपूर्वक पूजा की। पूजा उत्सव के प्रसंग पर कुबेरदत्त वहीं रहा । एक दिन उत्तम जाति के घोड़े पर बैठ कर कुमार वनविहार के लिए निकला। वन में पहुँचने पर घोड़ा सहसा अतिवेग से दौड़ने लगा। कुमार की सेना पीछे रह गई। कुमार एक भयानक निर्जन वन में पहुँचा। उस भयानक वन में एक मुनि वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे। कुमार की दृष्टि मुनि पर पड़ी। वह मुनि के पास गया और मुनि को वन्दन कर उनके समीप बैठ गया। मुनि ने धर्मोपदेश दिया। उपदेश सुनकर कुमार बड़ा प्रसन्न हुआ । अन्त में विनय पूर्वक आचार्य से प्रश्न किया- भगवन ! कर्मबलवान है या पौरुष ? आचार्य ने उत्तर में कहा-राजपुत्र ! अपने अपने स्थान पर दोनों ही बलवान है। सभी जीव कर्मानुसार ही व्यवसाय करते हैं । और जो जैसा कर्म करता है तदनुसार ही वह वैसा ही फल प्राप्त करता है। सिद्धान्त में कर्म और पुरुषार्थ का अन्योन्य सम्बन्ध बताया है। इसी बात के समर्थन में आचार्य ने कुबेरदत को एक कहानी सुनाई। कहानी सुनकर कुबेरदत्त बड़ा प्रभावित हुआ। कुमार मुनि का दर्शन कर आगे बढ़ा तो मार्ग में एक उन्मत्त हाथी मिला । हाथी जब कुमार के पीछे पड़ा तो कुमार ने बड़ी चतुराई से उसे वश में कर लिया । हाथी पर आरूढ होकर कुमार कुबेरदत्त अपनी नगरी में लौट आया।
योग्य समय पर राजा विश्वकन्त ने कुमार को राज्य गद्दी पर अधिष्ठित कर विमलजस सूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। कुबेरदत्त ने अपने राज्यकाल में राज्यश्रीं की अभिवद्धि की। कालान्तर में 3 हआ। अमरदत्त के युवा होने पर कुबेरदत्त ने उसे राज्य देकर विश्वकान्त मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की। गुरु के पास रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया और आचार्य पद प्राप्त किया। अपने आचार्य काल में कुबेरदत्त मुनिवर ने अनेक जीवों को प्रतिबोध देकर उन्हें शिवमार्ग बताया । अन्त में एक महिने का संलेखना पूर्वक संथारा कर स्वर्गवासी हए और सनतकुमार देवलोक में महद्धिक देव बने।
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