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( ८३ ) भद्रने स्पष्ट शब्दोंमें किया है।' इस 'यथाजात' पदसे स्पष्ट है कि तीसरी प्रतिमाधारीको सामायिक एकान्तमें नग्न होकर करना चाहिए। चामुण्डराय और वामदेवने भी अपने संस्कृत भावसंग्रहमें यथाजात होकर सामायिक करनेका विधान किया है। इसका अभिप्राय यही है कि इस प्रतिमाका धारक श्रावक प्रतिदिन तीन बार कमसे कम दो घड़ी तक नग्न रहकर साधु बननेका अभ्यास करें। इस प्रतिमाधारीको सामायिक-सम्बन्ध दोषोंका परिहार भी आवश्यक बताया गया है। इस प्रकार तीसरी प्रतिमाका आधार सामायिक नामका प्रथम शिक्षावत है ।
चौथी प्रोषध प्रतिमा है, जिसका आधार प्रोषधोपवास नामक दूसरा शिक्षावत है। पहले यह अभ्यास दशामें था, अतः वहाँपर सोलह, बारह या आठ पहरके उपवास करनेका कोई प्रतिबन्ध नहीं था, आचाम्ल, निर्विकृति आदि करके भी उसका निर्वाह किया जा सकता था। अतीचारोंकी भी शिथिलता थी। पर इस चौथी प्रतिमामें निरतिचारता और नियतसमयता आवश्यक मानी गई है। इस प्रतिमाधारीको पर्वके दिन स्वस्थ दशामें सोलह पहरका उपवास करना ही चाहिए। अस्वस्थ या असक्त अवस्थामें ही बारह या आठ पहरका उपवास विधेय माना गया है। उपवासके दिन गृहस्थीके सभी आरम्भ-कार्य त्यागकर मुनिके समान अहर्निश धर्म-ध्यान करना आवश्यक बताया गया है।
इस प्रकार प्रथम और द्वितीय शिक्षाव्रतके आधारपर तीसरी और चौथी प्रतिमा अवलम्बित है, यह निर्विवाद सिद्ध होता है। आगेके लिए पारिशेषन्यायसे हमें कल्पना करनी पड़ती है कि तीसरे और चौथे शिक्षाव्रतके आधारपर शेष प्रतिमाएँ भी अवस्थित होनी चाहिए। पर यहाँ आकर सबसे बड़ी कठिनाई यह उपस्थित होती है कि शिक्षाव्रतोंके नामोंमें आचार्योंके अनेक मतभेद हैं जिनका यहाँ स्पष्टीकरण आवश्यक है। उनकी तालिका इस प्रकार है :आचार्य या अन्य नाम प्रथम शिक्षाबत द्वितीय शिक्षावत तुतीय शिक्षाबत चतुर्थ शिक्षावत १ श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र नं० १ सामायिक प्रोषधोपवास अतिथि पूजा सल्लेखना २ आ० कुन्दकुन्द ३ , स्वामिकात्तिकेय
देशावकाशिक ४ , उमास्वाति
भोगोपभोगपरिमाण, अतिथिसंविभाग ५ , समन्तभद्र देशावकाशिक सामायिक प्रोषधोपवास वैयावृत्य
सोमदेव सामायिक प्रोषधोपवास भोगोपभोगपरिमाण, दान ७ , देवसेन
अतिथिसंविभाग सल्लेखना ८ श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र नं० २ भोगपरिमाण उपभोगपरिमाण , ९ वसुनन्दि
भोगविरति उपभोगविरति , __ आचार्य जिनसेन, अमितगति, आशाधर आदिने शिक्षाव्रतोंके विषयमें उमास्वातिका अनुकरण किया है।
१. चतुरावतियश्चमणामः स्थितो यथाजातः ।
सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ॥ (रत्नकरण्डक १३९) २. देखो माग० ३, पृ० ४७१ श्लो० ९।
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