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________________ ( ७८ ) आ० वसुनन्दिके इस स्वरूपका अनुसरण परवर्ती कुछ श्रावकाचार - रचयिताओंने भी किया है । यथा - पं० मेधावी कहते हैं- जहाँ अपना व्रतभङ्ग होता हो और जिस देशमें जैन शासन न हो, उस देशमें कभी नहीं जाना चाहिए। (देखो भा० २ पृ० १३४ श्लो० ३८) गुणभूषणने भी इसी बातको दुहराया है । (देखो - भा० २ पृ० ४५० श्लो० ३३) जब हम देशव्रत के उक्त स्वरूपपर दृष्टिपात करते हैं और उसमें दिये गये 'व्रत-भंग - कारण ' पदपर गम्भीरतासे विचार करते हैं, तब हमें उनके द्वारा कहे गये स्वरूपकी महत्ताका पता लगता है । कल्पना कीजिए - किसीसे वर्तमान में उपलब्ध दुनिया में जाने-आने और उसके बाहर न जानेका दिव्रत लिया । पर उसमें अनेक देश ऐसे हैं जहाँ खानेके लिए मांसके अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता, तो दिग्व्रतकी मर्यादाके भीतर होते हुए भी उनमें अपने अहिंसा व्रतको रक्षाके लिए न जाना देशव्रत है। एक दूसरी कल्पना कीजिए- किसी व्रतीने भारतवर्षका दिग्व्रत किया । भारतवर्ष आर्यक्षेत्र भी है। पर उसके किसी देश - विशेष में ऐसा दुर्भिक्ष पड़ जाय कि लोग अन्न के दाने-दाने को तरस जायँ, तो ऐसे देशमें जानेका अर्थ अपने आपको और अपने व्रतको संकटमें डालना है । इसी प्रकार दिग्व्रत-मर्यादित क्षेत्रके भीतर जिस देशमें भयानक युद्ध हो रहा हो, जहाँ मिथ्यात्वियों या विधर्मियोंका बाहुल्य हो, व्रती संयमीका दर्शन दुर्लभ हो, जहाँ पीनेके लिए पानी भी शुद्ध न मिल सके, इन और इन जैसे व्रत भंगके अन्य कारण जिस देशमें विद्यमान हों, उनमें नहीं जाना, या जानेका त्याग करना देशव्रत है । इसका गुणव्रतपना यही है कि उक्त देशोंमें न जसे उसके व्रतोंकी सुरक्षा बनी रहती है । इस प्रकारके सुन्दर और गुणव्रतके अनुकूल देशव्रतका स्वरूप प्रतिपादन करना सचमुच आचार्य वसुनन्दिकी सैद्धान्तिक पदवीके सर्वथा अनुरूप है । (स) देशव्रत के समान ही अनर्थदण्डव्रतका स्वरूप भी आचार्य वसुनन्दिने अनुपम और विशिष्ट कहा है । वे कहते हैं कि 'खड्ग, दंड, फरशा, अस्त्र आदिका न बेंचना, कूटतुला न रखना, हीनाधिक- मानोन्मान न करना, क्रूर एवं मांस भक्षी जानवरोंका न पालना तीसरा गुणव्रत है ।' (देखो गाथा नं० २१६ ) अनर्थदण्डके पाँच भेदोंके सामने उक्त लक्षण बहुत छोटा या नगण्य सा दिखता है । पर जब हम उसके प्रत्येक पदपर गहराईसे विचार करते हैं, तब हमें यह उत्तरोत्तर बहुत विस्तृत और अर्थपूर्ण प्रतीत होता है । उक्त लक्षणसे एक नवीन बातपर भी प्रकाश पड़ता है, वह यह कि आचार्य वसुनन्दि कूटतुला और हीनाधिक- मानोन्मान आदिको अतीचार न मानकर अनाचार ही मानते थे। ब्रह्मचर्याणुव्रत स्वरूपमें अनंग-क्रीडा- परिहारका प्रतिपादन भी उक्त बातकी ही पुष्टि करता है । (२) आचार्य वसुनन्दिने भोगोपभोग - परिमाणनामक एक शिक्षाव्रतके विभाग कर भोगविरति और उपभोग-विरति नामक दो शिक्षाव्रत गिनाये हैं । जहाँ तक मेरा अध्ययन है, मैं समझता हूँ कि समस्त दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में कहींपर भी उक्त नामके दो स्वतंत्र शिक्षाव्रत देखने में नहीं आये । केवल एक अपवाद है । और वह है गणधर रचित माने जानेवाला 'श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र' । वसुनन्दिने ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप वर्णन करनेवाली जो गाथाएँ अपने श्रावकाचार में निबद्ध की हैं वे उक्त श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रमें ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। जिससे पता चलता है कि उक्त गाथाओंके समान भोग-विरति और उपभोग-विरति नामक दो शिक्षाव्रतोंके प्रतिपादनमें भी उन्होंने 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र' का अनुसरण किया है। अपने कथनकी प्रामाणिकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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