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________________ साटी संहिता-प्रशस्ति २३५ एतेषामस्ति मध्ये गृहवृषरुचिमान् फामनः संघनाथस्तेनोच्चः कारितेयं सदनसमुचिता संहिता नाम लाटो। श्रेयोर्थ फामनीयः प्रमुदितमनसा दानमानासनाचेः स्वोपज्ञा राजमल्लेन विदितविदुषाऽऽम्नायिना हैमचन्द्रे ॥३॥ ___ इति श्रीवंशस्थितिवर्णनम् । यावद्व्योमापगाम्भो नभसि परिगतौ पुष्पदन्तो दिवोशी यावत्क्षेत्रेऽत्र दिव्या प्रभवति भरतो भारती भारतेऽस्मिन् । तावत्सिद्धान्तमेतज्जयत जिनपतेराज्ञया ख्यातलक्ष्म तावत्त्वं फामनाख्यः श्रियमुपलभतां जनसंघाधिनाथः ॥३९॥ इत्याशीर्वादः। यावन्मेरुधरापीठे यावच्चन्द्रदिवाकरौ । वाच्यमानं बुधस्तावच्चिरं नन्दतु पुस्तकम् ॥४०॥ प्रेम रखनेवाला फामननामका सघनायक है उसीने यह गृहस्थोंके योग्य लाटीसंहितानामका ग्रन्थ निर्माण कराया है। फामनके द्वारा दिये हुए दान मान और आसनके द्वारा जिनका मन अत्यन्त प्रसन्न है तथा जो अत्यन्त विद्वान् है और श्रोहेमचन्द्रको आम्नायमें रहता है ऐसा विद्गद्वर राजमल्लने अपने नामको धारण करनेवाली यह लाटीसंहिता अपने कल्याणके लिए निर्माण की है ।।३८।। इस प्रकार वंशका वर्णन समाप्त हुआ। इस संसारमें जबतक गंगाका जल विद्यमान है तथा जबतक आकाशमें सूर्य चन्द्रमा परिभ्रमण कर रहे हैं और जबतक इस भरतक्षेत्रमें दिव्य सरस्वतीदेवी पूर्णरूपसे अपना प्रभाव जमा रही हैं तबतक भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आज्ञानुसार ही जिसमें समस्त लक्षण कहे गये हैं ऐसा यह जैनसिद्धांत अथवा यह सिद्धांत ग्रंथ जयशील बना रहे तथा तभीतक संघका नायक यह फामन भो सब तरहको लक्ष्मी और शोभाको प्राप्त होता रहे ॥३९॥ इति आशीर्वादः। इस पृथ्वीपर जबतक मेरु पर्वत विद्यमान है तथा जबतक आकाशमें सूर्य चन्द्रमा विद्यमान हैं तबतक विद्वानोंके द्वारा पढ़ा जानेवाला यह ग्रन्थ चिरकालतक वृद्धिको प्राप्त होता रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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