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________________ ( ४२ ) आदि सर्वत्र पंच नमस्कारमंत्रके पाठ करते रहनेका उपदेश देकर यात्रा, पूजा प्रतिष्ठा और जीर्णचैत्य चैत्यालयादिके उद्धारकी प्रेरणाकर इसे समाप्त किया गया है । इसके रचयिताने अपने नामका कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है । पर इसे 'व्रतसार' नाम अन्तिम श्लोकमें अवश्य दिया है और कहा है कि जो इस 'व्रतसार' को शक्तिके अनुसार पालन करेगा, वह स्वर्गके सुखोंको भोगकर अन्तमें मोक्षको जायगा । २५. व्रतोद्योतन श्रावकाचार - श्री मनदेव श्री अभ्रदेव - विरचित व्रतोद्योतन श्रावकाचार प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भाग में संकलित है । यह अपने नामके अनुरूप ही व्रतोंका उद्योत करनेवाला श्रावकाचार है । ५४२ श्लोकवाले इस श्रावकाचारमें कोई अध्याय-विभाग नहीं किया गया है। प्रारम्भमें प्रातः काल उठकर शरीरशुद्धिकर जिन-बिम्ब-दर्शन एवं पूजन करनेका उपदेश है । तत्पश्चात् रजस्वलास्त्रीके पूजन और गृह कार्य करनेका निषेध कर पूर्व भवमें मुनिनिन्दा करनेवाली स्त्रियोंका उल्लेख है । पुनः अभक्ष्यभक्षण, कषायोंके दुष्फल, पंचेन्द्रिय-विषय और सप्त व्यसन सेवनके दुष्फल बताकर कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि पुरुष नवीन मुनिको तीन दिन तक परीक्षा करके पीछे नमस्कार करे । तदनन्तर श्रावकके बारह व्रतोंका, सल्लेख नाका, ग्यारह प्रतिमाओंका और बारह भावनाओंका वर्णन किया गया है । तत्पश्चात् पाक्षिक नैष्ठिक, साधकका स्वरूप वर्णन कर परीषह सहने, समिति पालने, अनशनादि तपोके करने और सोलह कारण भावनाओंके भानेका उपदेश दिया गया है । पुनः सम्यक्त्वके आठ अंगोंका, रत्नत्रय और क्षमादि दश धर्मोका वर्णन कर आत्माके अस्तित्वकी सिद्धिकी गई है । पुनः ईश्वरके सृष्टि कर्तृत्वका निराकरण कर जैन मान्यता प्रतिष्ठित की गई है । अन्तमें मिथ्यात्व आदि कर्म - बन्धके कारणोंका वर्णन कर अहिंसादि व्रतोंके अतिचारोंका, व्रतोंकी भावनाओंका, सामायिकके बत्तीस और वन्दनाके बत्तीस दोषोंका वर्णन कर सम्यग्दर्शनकी महिमाका निरूपण किया गया है । इस श्रावकाचारके विचारणीय कुछ विशेष वर्णन इस प्रकार हैं १. अनन्तानुबन्धी आदि कषायोंका अर्थ २. अणु और परमाणुका स्वरूप ३. जीवद्रव्यका स्वरूप ४. पुलाक- बकुश आदिका स्वरूप ५. पाक्षिक, नैष्ठिक, साधकका स्वरूप ६. अनशन तपका स्वरूप ( भा० ३ पृ० २२७ श्लोक १९२) 27 २२८ १९९) २२९ श्लोक २०९) २२९ २१५) २३४, २५९-६१ ) २३६ श्लोक २८२) 31 Jain Education International 17 For Private & Personal Use Only 11 17 17 ( ३ "" 37 इस श्रावकाचारकी रचना कवित्वपूर्ण एवं प्रसादगुणसे युक्त है और महाकाव्योंके समान विविध छन्दोंमें इसकी रचना की गई है । "" बौद्ध, नैयायिकादिके मतोंकी समीक्षासे ज्ञात होता है कि अभ्रदेव विभिन्न मत-मतान्तरोंके अच्छे ज्ञाता थे । परिचय और समय इस श्रावकाचारके अन्तिम श्लोकसे ज्ञात होता है कि बुध अनदेवने इसे प्रवरसेन मुनिके आग्रहसे रचा है । ये प्रवरसेन मुनि कब हुए और अभ्रदेवका क्या समय है, इसका पता न डॉ० www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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