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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार - प्रशस्ति लोकोत्तमाः शरणमङ्गलमङ्गभाजामर्हद्विमुक्तमुनयो जिनधर्मकाश्च । ये तान् नमामि च दधामि हृदम्बुजेऽहं संसारवारिधिसमुत्तरणैकसेतून् ॥७॥ स्याद्वादचिह्नं खलु जैनशासनं जन्मव्ययध्रौव्यपदार्थशासनम् । जीयात् त्रिलोकजनशर्मसाधनं चक्रे सतां वन्द्यमनिन्द्यबोधनम् ॥८॥ सन्नन्दिसङ्घसुरवर्त्मदिवाकरोऽभूच्छ्री कुन्दकुन्द इतिनाम मुनीश्वरोऽसौ । जीयात्स यद्विहितशास्त्रसुधारसेन मिथ्याभुजङ्गगरलं जगतः प्रणष्टम् ॥९॥ आम्नाये तस्य जातो गुणगणसहितो निर्मल ब्रह्मपूतः, सद्विद्यापारयातो जगति सुविदितो मोहरागव्यतीतः । सूरिश्रीपद्यनन्दी भवविहतिनदीनाविको भव्यनन्दी. स्यान्नित्यानित्यवादी परमतविलसन्नि मंदीभूतवादी ॥१०॥ तत्पट्टे शुभचन्द्रकोऽजनि जनिध्रौव्यान्तरूपार्थवित् द्वेधा सत्तपसां विधानकरणः सद्धर्णरक्षाचणः । येनाऽऽद्योति जिनेन्द्रदर्शननभोनक्तं कलौ ज्योत्स्नया सद-वृत्याऽमृतगर्भया गुरुबुधानन्दात्मना स्वात्मना ॥११॥ तुम लोगोंके लिये आत्मीय लक्ष्मीके देने वाले हों ||६|| जो लोकमें श्र ेष्ठ हैं, संसारवत्र्ती जीवोंको आश्रयस्थान तथा मंगल रूप हैं, तथा संसार रूप नीरधिके पार करनेमें जहाज समान हैं ऐसे अर्हत्सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु तथा जिनधर्मको मैं अपने हृदय कमलमें धारण करता हूँ तथा उनके लिये नमस्कार भी करता हूँ ||७|| स्याद्वाद (अनेकान्त) मतका चिह्न, उत्पत्ति, विनाश, तथा धीव्य (नित्यावस्था) गुणसे युक्त पदार्थका उपदेश देने वाला, तीनों लोकमें जितने प्राणिवगं हैं उन सबके लिये सुखका प्रधान कारण जैन शासन इस संसार में चिरकाल पर्यन्त रहे जिसके द्वारा प्राचीन समय में सत्पुरुषोंको प्रणति योग्य निर्दोषज्ञानकी प्राप्ति हुई है || ८|| श्रेष्ठ नन्दिसंघ रूप गगन में सूर्य के समान तेजस्वी श्रीकुन्दकुन्द मुनिराज हुए हैं जिनके बनाये हुए शास्त्र रूप अमृत रससे इस संसारका मिथ्यात्वरूप सर्पराजका उत्कट विष नाश हुआ वे मुनिराज निरन्तर जयको प्राप्त होवें ||९|| जिस तरह सर्पका विष अमृतके सेवनसे दूर हो जाता है उसी तरह जिनके शास्त्र रूप अमृत से मिथ्यात्व रूप सर्पसे काटे हुए जगत्का विष दूर हुआ है (जिनके द्वारा मिथ्यामतका नाश होकर जैन शासनकी प्रवृत्ति हुई है) वे कुन्दकुन्द मुनिराज इस जगत्‌को सदैव पवित्र करें। उन्हीं कुन्दकुन्द मुनिराजकी आम्नायमें अनेक प्रकार पवित्र गुण समूहसे विराजमान, निर्दोष ब्रह्मचर्यं से पवित्र, स्याद्वादरूप पवित्र विद्याके पारको प्राप्त, अखिल संसार में प्रसिद्ध, मोह, द्वेष, रागादिसे सर्वथा विनिर्मुक्त, भवभ्रमण रूप अगम्य नदीके कर्णधार (खेवटिया), भव्यजनों को आनन्ददायी, कथंचित् नित्य तथा कथंचित् अनित्यरूप स्याद्वादमार्गका कथन करने वाले तथा जिन्होंने अच्छे-अच्छे परमतावलम्बी विद्वानोंका अवलेप दूर कर दिया है - ऐसे श्रीपद्मनन्दी आचार्य हुए ||१०|| श्रीपद्मनन्दी आचार्यके पट्टपर उत्पत्ति, विनाश, तथा नित्यस्वरूप पदार्थ के जानने वाले, अन्तरंग तथा बहिरंग तपके धारण करने वाले, पवित्र जिनशासन की रक्षा करनेमें उत्साहशील, श्रीशुभचन्द्र मुनिराज हुए । अपने आत्मा के द्वारा बड़े-बड़े विद्वान् पुरुषोंको आनन्दके देनेवाले जिन शुभचन्द्र मुनिराज ने इस कलिकालरूप रात्रिमें - भीतर अमृतरस पूरित सदाचरणरूप ज्योत्स्ना (चाँदनी) से जिनशासन रूप गगन मण्डलको प्रकाशित Jain Education International २२५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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