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श्रावकाचार-संग्रह आबाल्यात्सुकृतेः सुजन्म सफलं कृत्वा कृतार्थ चिरं धर्मध्यानविधानलीनमनसो मोहव्यपोहोचताः। पर्यन्तप्रतिभाविशेषवशतो ज्ञात्वा निजस्यायुषः कायत्यागमुपासते सुकृतिनः पूर्वोक्तयाशिमया ॥११ स श्रेष्टोऽपि तथा गुणी स सुभटोऽत्यन्तं प्रशंसास्पदं प्राज्ञः सोऽपि कलानिधिः स च मुनिः स माबलो योगवित् । स ज्ञानी स गुणिवजस्य तिलको जानाति यः स्वां मृति निर्मोहः समुपार्जयत्यय पदं लोकोत्तरं शाश्वतम् ॥१२ इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामिविरचिते श्रावकाचारे जन्मचर्यायां
परमपद-प्रापणो नाम द्वादशोल्लासः समाप्तः ।
बाल-कालसे लेकर सुक्त कार्योके द्वारा अपना सुजन्म सफल करके और चिरकाल तक कृतार्थ होकर धर्मध्यान करने में संलग्न चित्तवाले तथा मोहके विनाश करने में उद्यत पुण्यशाली पुरुष अपने जीवनके अन्तमें प्रतिभाविशेषके निमित्तसे अपनी आयुको अल्प जानकर पूर्वोक्त शिक्षाके द्वारा शरीरके त्यागको उपासना करते हैं ॥११॥ वहो पुरुष श्रेष्ठ है, तथा वही पुरुष गुणी है, वही सुभट है, वही अत्यन्त प्रशंसाके योग्य है, वही प्रकृष्ट बुद्धिमान् है, वही कलाओंका निधान है, वही मुनि है, वही क्षमावान् है, वही योग-वेत्ता है, वही ज्ञानी है और वही गुणीजनोंके समूहका तिलक है, जो अपनी मृत्युको जानकर तत्पश्चात् संसार, देह और कुटुम्ब-परिग्रहादिसे मोह-रहित होकर लोकोत्तर शाश्वत शिवपदको उपार्जित करता है ॥१२॥
इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्दस्वामि-विरचित श्रावकाचारमें जन्मचर्याके अन्तर्गत
परमपदको प्राप्त करानेवाला बारहवाँ उल्लास समाप्त हुआ।
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