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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार मनोवचनकायानामारम्भो नैव सर्वथा । कर्त्तव्यो निश्चलैर्भाव्यमौदासीन्यपरायणैः ॥६९ पुष्यार्थमपि माऽऽरम्भं कुर्यान्मुक्तिपरायणः । पुण्यपापक्षयान्मुक्तिः स्यादन्तः समतापरः ॥७० संसारे यानि सौख्यानि तानि सर्वाणि यत्पुरः । न किञ्चिदिव दृश्यन्ते तदोदासीन्यमाश्रयेत् ॥७१ वेदा यज्ञाश्च शास्त्राणि तपस्तीर्थानि संयमः । समतायास्तुलां नैते यान्ति सर्वेऽपि मोलिताः ॥७२ एकवणं यथा दुग्धं भवेत्सर्वासु धेनुषु । तथा धर्मस्य वैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं पुनः ॥७३ आत्मानं मन्यते नैकश्चावकस्तस्य वागियम् । तनुनीरन्ध्रिते भाण्डे क्षिप्तश्चोरो मृतोऽथ सः ॥७४ निर्जगाम कथं तस्य जीवः प्रविविशुः कथम् । अपरे कृमिरूपाश्च निच्छिद्र तत्र वस्तुनि ॥७५ १२९ उच्यते तथैव मुद्रिते भाण्डे क्षिप्तः शङ्खयुतो नरः । शङ्खात्तद्वादितो नादो निःक्रामति कथं बहिः ॥७६ अग्नितः कथं ध्मातो लोहगोले विशत्यहो । अमूर्तस्यात्मनस्तस्य विज्ञेयौ तद्-गमागमो ॥७७ ---- परः प्राह दस्योरन्यस्य काये च लवशः शकलोकृते । न दृष्टः क्वचिदप्यात्मा सोऽस्ति चेत् किन्न दृश्यते । १८ उदासीनतामें तत्पर एवं निश्चल पुरुषोंको मन वचन और कायका आरम्भ सर्वथा ही नहीं करना चाहिए ||६९ || मुक्ति - प्राप्तिमें संलग्न पुरुषोंको पुण्य-उपार्जनके लिए भी किसी प्रकारका आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि पुण्य और पापके क्षयसे ही मुक्ति प्राप्त होती है, अतएव मनुष्यको अन्तरंगमें समताभावकी प्राप्तिके लिए तत्पर होना चाहिए ॥७०॥ जिस समता भावरूप उदासीनताके आगे संसारके जितने सुख है, वे सब 'न कुछ' से अकिंचित्कर दिखाई देते हैं, उस उदासीनताका आश्रय लेना चाहिए ॥७१॥ समस्त वेद, यज्ञ, शास्त्र, तप, तीर्थ और संयम ये सव मिल करके भी समताभावकी तुलनाको नहीं पाते हैं ||७२|| जिस प्रकार (विभिन्न वर्णवाली) सभी गायोंमें दूध एक ही वर्णका होता है, उसी प्रकार धर्मकी विचित्रता है, परन्तु परम तत्त्व एक ही है ||७३|| चार्वाक (नास्तिक) आत्माको नहीं मानता है । उसका यह कथन है कि छिद्र - रहित शरीररूपी भाण्डमें बन्द किया गया और तत्पश्चात् मर गया वह जीव कैसे निकल गया ? इसी प्रकार निश्छिद्र वस्तुमें उसके भीतर अन्य कृमिरूप प्राणी कैसी प्रवेश कर गये ? अर्थात् आकर कैसे उत्पन्न हो जाते हैं ||७४-७५॥ उत्तर कहते हैं - उसी प्रकारके निश्छिद्र मुद्रित भाण्डमें शंख-युक्त पुरुष डाला गया, पश्चात् उसके द्वारा बजाये गये शंखसे उसका नाद (गम्भीर शब्द ) कैसे बाहिर निकल आता है ? (यह बताओ ?) || ७६ || तथा अग्नि मूर्तिमान् है, वह घोंकी जाकर लोहेके ठोस गोलेमें कैसे प्रविष्ट हो जाती है ? अहो चार्वाक, तुम इसका उत्तर दो ? जिस प्रकार मूर्तिमान् अग्नि लोहेके गोलेमें प्रवेश कर जाती है और मुद्रित भाण्डमेंसे शंखकी ध्वनि बाहिर निकल आती है, इनके समान ही शरीर - पिण्डमें जीवका आगमन और उससे बहिर्गमन जानना चाहिए ||७७|| चार्वाक कहता है - किसी अन्य चोरके लव- प्रमाण खंड-खंडकर देनेपर भी आत्मा कहींपर भी दिखाई नहीं देता है। यदि वहाँ आत्मा है, तो फिर क्यों दिखाई नहीं देता है ||७८ || १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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