________________
१२६
भावकाचार-संग्रह यबा कोहं सुवर्णत्वं प्राप्नोत्योषषयोगतः । बात्मध्यानात्तयैवात्मा परमात्मत्वमश्रुते ॥३४ अम्यासजिते ध्यानैः शास्त्रस्यैः फलमस्ति न । भवेन्न हि फलैस्तृप्तिः पानीयप्रतिबिम्बतैः ॥३५ रूपस्वं च पदस्थं च पिण्डस्वं रूपमितम् । ध्यानं चतुर्विषं ज्ञेयं संसारार्णवतारकम् ॥३६ ।। पश्यति प्रथमं रूपं स्तौति ध्येयं ततः पदैः। तन्मयः स्यात्ततः पिण्डो रूपातीतः क्रमाद भवेत् ॥३७ यथावस्थितमालम्ब्य रूपं त्रिजगदोशितुः । क्रियते यन्मुषा ध्यानं तद्रूपस्थं निगद्यते ॥३८ विद्यायां यदि वा मन्त्रे गुरु-देवस्तुतावपि । पदस्थं कथितं ध्यानं पवित्रान्यपदेष्वपि ॥३९ स्तम्भे सुवर्णवर्णानि वश्ये रक्तानि तानि तु । क्षोभे विद्रुमवर्णानि कृष्णवर्णानि मारणे ॥४० द्वेषणे धूम्रवर्णानि शशिवर्णानि शान्तिके । आकर्षणेऽरुणवर्णानि स्मरेन्मन्त्राक्षराणि तु ॥४१ यत्किमपि शरीरस्थं ध्यायते देवतादिकम् । तन्मयो भावशुद्ध तत्पिण्डस्थं ध्यानमुच्यते ॥४२ आपूर्य वाममार्गेण शरोरं प्राणवायुना । तेनैव रेचयित्वाऽय नयेद् ब्रह्मपदं नमः ॥४३ अभ्यासाद रेचकादीनां विनापोह स्वयं मरुत् । स्थिरीभवेन्मनःस्थैर्यावद्युतिों का ततः परा ॥४४ निमेषार्धार्धमात्रेण भुवनेषु भ्रमंस्तथा । मनश्चञ्चलसद्भावं युक्त्या भवति निश्चलम् ॥४५
है उसे अनन्त गुणोंका स्वामी जानना चाहिए ॥३३॥ जिस प्रकार औषधिके प्रयोगसे लोह सुवर्णपनेको प्राप्त हो जाता है. उसी प्रकार यह कर्म-मलीमस संसारी आत्मा भी आत्म-ध्यानसे परमात्मपनेको प्राप्त हो जाता है ।।३४॥ ध्यानके अभ्याससे रहित जीवमें शास्वस्थध्यानसे, अर्थात् शास्त्रोक्त ध्यानोंके ज्ञानमात्रसे कोई फल प्राप्त नहीं होता है। जैसे कि जलमें प्रतिबिम्बित फलोंसे किसीकी तृप्ति नहीं होती है ॥३५॥
- रूपस्थ, पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपातीत यह चार प्रकारका धर्मध्यान संसार-समुद्रका तारनेवाला जानना चाहिए ॥ ६॥ पहिले ध्येयरूप परमात्माके रूपको देखता है, तत्पश्चात् मंत्र या स्तुतिरूप पदोंके द्वारा ध्येयकी स्तुति करता है, तदनन्तर तन्मय पिण्डरूप होता है । पश्चात् क्रमसे वह ध्याता आत्मा रूपातीत परमात्मा हो जाता है ।।३७।। त्रिजगदीश्वर परमात्माका जैसा रूप अवस्थित है उसका आलम्बन लेकर जो सांसारिक वासनाओंसे निस्पृह होकर ध्यान किया जाता है. वह रूपस्थ ध्यान कहा जाता है ॥३८॥ विद्याकी सिद्धि में अथवा मंत्रके साधनमें तथा देव और गुरुको स्तुति करने में भी जो पदोंका उच्चारण किया जाता है, वह पदस्थ ध्यान कहा जाता है। तथा पवित्र अन्य पदोंके उच्चारण और जाप करने में भी पदस्थ ध्यान होता है ॥३९॥
किसी व्यक्तिके स्तम्भन करनेमें मंत्रके अक्षरोंको स्वर्णवर्णका, वशीकरणमें रक्तवर्णका, क्षोभित करनेमें विदूम (मंगा) के वर्णका, मारणमें कृष्णवर्णका, द्वेष-कार्यमें धूम्रवर्णका, शान्तिकर्ममें चन्द्रवर्णका और आकर्षण कार्यमें अरुण वर्णका स्मरण करना चाहिए ॥४०-४१॥
शरीरमें स्थित जिस किसी भी देवतादिका ध्यान किया जाता है, वह तन्मयीभावसे शुद्ध पिण्डस्थ ध्यान कहा जाता हैं ॥४२॥ नासिकाके वाममार्ग (स्वर) से प्राणवायुके द्वारा शरीरको पूर्ण करके, तत्पश्चात् उसो ही मार्गसे रेचन करके मनुष्य ब्रह्मपदको प्राप्त होता है । उस ब्रह्मपदको हमारा नमस्कार है ॥४३।। रेचक-पूरक आदिके अभ्यासके बिना भी इस शरीरके भीतर वायु स्वयं स्थिर हो जाती है, उस समय मनकी स्थिरतासे जो ज्योति भीतर प्रकट होती है, उससे परे कोई ज्योति नहीं है ।।४४|| अर्धक अर्घ निमेषमात्रसे तीनों भवनोंमें परिभ्रमण करनेवाला यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org