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________________ बावकाचार-संग्रह परवश्यः स्वगुह्योक्तो भृत्यभोरुः कुकर्मना । पत्ते कः स्वस्य कोपेन पदं दुयंशसो हमी ॥४२० मणरागोऽगुणान्यासी दोषेषु रसिकोऽधिकम् । बहुहान्याऽल्परक्षी च सम्पदामास्पदं न हि ॥४२१ नृपेषु नृपवन्मोनी सोत्साहो दुर्बलादने । स्तब्धः स्वबहुमानेन भवेद दुर्जनवल्लभः ॥४२२ दुःखे बीनमुखोऽत्यन्तं सुखे दुर्गतिनिर्भयः । कुकर्मण्यपि निर्लज्जो बालकैरपि हस्यते ॥४२३ धूर्तस्तुत्याऽत्मनिर्धान्तः कीर्त्या चापात्रपोषकः । स्वहितेष्वविमर्शी च क्षयं यात्येव बालिशः ॥४२४ विद्वानस्मोति वाचालः सोधमीत्यतिचञ्चलः । शूरोऽस्मीति च निःसूक्तः स सभायां न राजते ॥४२५ धर्मद्रोहेण सौख्येच्छुरन्यायेन विद्धिषुः । पापयंश्च स्वमोक्षेच्छुः सोऽतिथिद्गतेनरः ॥४२६ विकृतः सम्पदप्राप्त्या विज्ञम्मन्यो मुखत्वतः । देवशक्त्या नृपत्वेच्छु/मद्भिनं प्रशस्यते ॥४२७ क्लिष्टोक्त्यापि कविम्मन्यः स्वश्लाघी च पर्षदि । व्याचष्टे चाश्रुतं शास्त्रं यस्तस्य मतये नमः ॥४२८ उद्वेजकोऽतिचाटुक्त्या समं स्यात्तं हसन्नपि । निर्गुणो गुणिनिन्वाकृत्क्रकचप्रतिमः पुमान् ॥४२९ प्रसभं पाठको विद्वानदातुरभिलाषुकः । अज्ञो नवरसज्ञश्च कपिकच्छुसमा इमे ॥४३० द्वारा एवं अपने क्रोधसे कौन पुरुष उत्तम पदको धारण करता है ? अर्थात् कोई भी नहीं। ये सभी अपयशके पात्र हैं ॥४२०॥ क्षणरागी अर्थात मित्रादिकोंके साथ अल्पकाल ही स्नेह रखनेवाला, दुर्गुणोंका अभ्यासी, दोषोंमें अधिक रस लेनेवाला और अधिक धनादि की हानि करके अल्प धनादिकी रक्षा करनेवाला, ये सभी पुरुष सम्पत्तियोंके पात्र नहीं होते हैं ॥४२१॥ राजाओंके मध्यमें राजाके समान मौन धारण करनेवाला, दुर्बल पुरुषको दुःखित-पीड़ित करनेमें उत्साह रखनेवाला और अपनेको बहुत बड़ा मान करके अहंकार-युक्त रहनेवाला, ये सभी दुर्जनोंके वल्लभ (प्रिय) होते हैं ।।४२२।। दुःखके आने पर अत्यन्त दीन मुख रहनेवाला, सुखके समय (पाप करके भी) दुर्गतियोंसे निर्भय रहनेवाला और कुकर्म करते हुए भी निर्लज्ज रहनेवाला पुरुष बालकोंके द्वारा भी हँसीका पात्र होता है ।।४२३॥ धूर्नजनोंकी स्तुति-प्रशंसासे अपने आपमें भ्रान्ति-रहित रहनेवाला, कीत्ति प्राप्त करनेकी इच्छासे अपात्र-कुपात्रजनोंका पोषण करनेवाला और अपने हितमें भी भले-बुरेका विचार नहीं करनेवाला, ये तीनों ही मूर्ख विनाशको ही प्राप्त होते हैं ॥४२४॥ ___'मैं विद्वान हूं' ऐसा समझ कर वाचाल रहनेवाला, 'मैं उद्यमशील हूँ' ऐसा मानकर अति चंचल रहनेवाला और 'मैं शूर-वीर हूं' ऐसा अभिमान कर उत्तम वचनोंको नहीं बोलनेवाला पुरुष सभामें शोभा नहीं पाता है ॥४२५॥ धर्मके साथ द्रोह करके सुखकी इच्छा करनेवाला, अन्यायसे धनादिकी वृद्धिका इच्छुक तथा पाप करके भी मुक्तिको चाहनेवाला, ये सभी मनुष्य दुर्गतिके अतिथि जानना चाहिए ।।४२६॥ सम्पतिकी प्राप्ति न होनेसे विकार-युक्त रहनेवाला, अपने मुखसे अपनेको विद्वान् माननेवाला और देवी शक्तिसे राजा बननेकी इच्छा करनेवाला पुरुष बुद्धिमानोंके द्वारा प्रशंसा नहीं पाते हैं ॥४२॥ कठिन-वचन-रचना करके भी अपनेको कवि माननेवाला, सभामें अपनी प्रशंसा करनेवाला और अश्रुत (गुरुमुखसे नहीं सुने हुए) शास्त्रका जो व्याख्यान करता है, ऐसे पुरुषकी बुद्धिके लिए नमस्कार है ।।४२८॥ अति खुशामदी वचनोंसे उद्वेगको प्राप्त होनेवाला, अर्थात् अपनेको बड़ा माननेवाला, खुशामदीके हँसनेपर उसके साथ हंसनेवाला और गुण-रहित होते हए भी गुणी पुरुषोंकी निन्दा करनेवाला, ये तीनों पुरुष क्रकच (करीत-आरा) के समान हैं ॥४२९॥ पठन-पाठन प्रारम्भ करते ही अपनेको शीघ्र बड़ा विद्वान् माननेवाला, दान नहीं देनेवालेकी अभिलाषा (प्रशंसा) करनेवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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