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________________ रूपसे यावज्जीवनके लिए भी होता है फिर उसे शिक्षाव्रतोंमें कैसे गिना जाय ! इसके साथ ही दूसरा संशोधन देशावकाशिकको प्रथम शिक्षावत मानकर किया। उनकी तार्किक दृष्टि ने उन्हें बताया कि सामायिक और प्रोषधोपवासके पूर्व ही देशावकाशिका स्थान होना चाहिए, क्योंकि उन दोनोंकी अपेक्षा इसके कालकी मर्यादा अधिक है। इसके सिवाय उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित सल्लेखनाको शिक्षाव्रत रूपसे नहीं माना । उनकी तार्किक दृष्टिको यह अँचा नहीं कि मरणके समय की जानेवाली सल्लेखना जीवन भर अभ्यास किये जानेवाले शिक्षाव्रतोंमें कैसे स्थान पा सकती है ? अतः उन्होंने उसके स्थानपर वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रतको कहा । सूत्रकारने अतिथि-संविभाग नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा है, परन्तु उन्हें यह नाम भी कुछ संकुचित या अव्यापक ऊंचा, क्योंकि इस व्रतके भीतर वे जितने कार्योंका समावेश करना चाहते थे, वे सब अतिथि-संविभागके.भीतर नहीं आ सकते थे। उक्त संशोधनोंके अतिरिक्त अतीचारोंके विषयमें भी उन्होंने कई संशोधन किये । तत्त्वार्थसूत्रगत परिग्रह परिमाणवतके पाँचों अतीचार तो एक 'अतिक्रमण' नाममें ही आ जाते हैं, फिर उनके पंचरूपताकी क्या सार्थकता रह जाती है, अतः उन्होंने उसके स्वतंत्र ही पाँच अतीचारोंका प्रतिपादन किया। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्रगत भोगोपभोगपरिमाणके अतीचार भी उन्हें अव्यापक प्रतीत हुए, क्योंकि वे केवल भोगपर ही घटित होते हैं, अतः इस व्रतके भी स्वतंत्र अतीचारोंका निर्माण किया और यह दिखा दिया कि वे गतानुगतिक या आज्ञा-प्रधान न होकर परीक्षाप्रधानी हैं। इसी प्रकार एक संशोधन उन्होंने ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचरोंमें भी किया। उन्हें इत्वरिकापरिगृहीतागमन और इत्वरिका-अपरिगृहीतागमनमें कोई खास भेद दृष्टिगोचर नहीं हुआ, क्योंकि स्वदार-सन्तोषीके लिए तो दोनों ही परस्त्रियाँ हैं । अतः उन्होंने उन दोनोंके स्थानपर एक इत्वरिका गमनको रखकर 'विटत्व' नामक एक और अतीचारको स्वतंत्र कल्पना की, जो कि ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचार होनेके सर्वथा उपयुक्त है। श्रावकधर्मके प्रतिपादन करनेवाले आदिके दोनों ही प्रकारोंको हम रत्नकरण्डकमें अपनाया हुआ देखते हैं, तथापि ग्यारह प्रतिमाओंका ग्रन्थके सबसे अन्तमें वर्णन करना यह बतलाता है कि उनका झुकाव प्रथम प्रकारकी अपेक्षा दूसरे प्रतिपादन-प्रकारकी ओर अधिक रहा है । अर्हत्पूजन को वैयावृत्यके अन्तर्गत वर्णन करना रत्नकरण्डकी सबसे बड़ी विशेषता है । इसके पूर्व पूजनको श्रावक-व्रतोंमें किसीने नहीं कहा है । सम्यक्त्वके आठ अंगोंमें, पाँच अणुव्रतोंमें, पाँच पापोंमें और चारों दानोंके देनेवालोंमें प्रसिद्धिको प्राप्त करनेवालोंके नामोंका उल्लेख भी रत्नकरण्डककी एक खास विशेषता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी समन्तभद्रने श्रावक धर्मको पर्याप्त पल्लवित और विकसित किया और उसे एक व्यवस्थित रूप देकर भविष्यकी पीढ़ीके लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। परिचय और समय आचार्य समन्तभद्रके समयपर विभिन्न इतिहासज्ञोंने विभिन्न प्रमाणोंके आधारोंपर भिन्नभिन्न मत प्रकट किये हैं। किन्तु स्वर्गीय जगलकिशोर मुख्तारने उन सबका सयक्तिक निरसन करके उन्हें विक्रमकी दूसरी शतीका आचार्य सिद्ध किया है और उनके इस मतकी डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनने अनेक युक्तियोंसे समर्थन किया है। स्व० मुख्तार साहबने स्वामी समन्तभद्रके इतिहासपर बहुत विशद प्रकाश डाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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