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________________ - श्रावकाचार-संग्रह स्तम्भकूपतरुकोणावविद्धं द्वारं शुभं न हि । गृहोच्चद्विगुणं भूमि त्यक्त्वा ते स्युन दोषदाः ॥९१ 'प्रक्रमान्त्ययामवयं द्वित्रिप्रहरसम्भवा । छाया वृषभध्वजादीनां सदा दुःखप्रदायिनी ॥९२ स्तम्भ. कूप, वृक्ष, कोण और मार्गसे यदि भवनका द्वार विद्ध है, तो वह शुभ नहीं है । परन्तु घरकी ऊँचाईको दूना करके जो प्रमाण आवे, उतनी यदि भूमि छोड़ दी जावे तो उक्त वेधादि दोष नहीं होते हैं ।।९।। विशेषार्थ-भवनके निर्माण करते समय सर्व प्रकारके भूमि दोषोंको शुद्ध करके द्वार स्थापन करे । उसमें वेधका विचार होता है। वेध सात प्रकारके होते हैं-१ तलवेध, २ कोणभेद, ३ तालुवेध, ४ कपालवेध, ५ स्तम्भभेद, ६ तुलाभेद और ७ द्वारभेद। घरकी भूमि कहीं सम और कहीं विषम हो, द्वारके सामने कुभी (तेल निकालनेकी घानी, ईख पेलनेकी कोल्हू) हो, कुंआ हो या दूसरेके घरका रास्ता हो तो तलवेध जानना चाहिए। यदि घरके कोने बराबर न हों तो कोणवेध समझना चाहिए। भवनके एक ही खंडमें पीढे नीचे ऊँचे होनेको तालुवेध कहते हैं । द्वारके ऊपर पटियेपर गर्भ (मध्य) भागमें पोढा आवे तो उसे शिरवेध (कपालवेध) कहते हैं । घरके मध्यभागमें एक खंभा हो, अथवा अग्नि या जलका स्थान हो तो उसे उरःशल्य (स्तम्भवेध) जानना चाहिए। घरके नीचे या ऊपरके खंडमें पीढे (पटिये, पट्टी) न्यूनाधिक हों, तो उसे तुलावेध कहते हैं। जिस घरके द्वारके सामने या बीचमें वृक्ष, कुआं, खम्भा, कोना या कीला (खुंटा) हो तो उसे द्वारवेव कहते हैं । किन्तु घरकी ऊँचाईसे दुगुनी भूमि छोड़नेके बाद यदि वृक्षादि हों तो कोई दोष नहीं है । उक्त वे धोंका फल वास्तुसारमें इस प्रकार बतलाया गया है-तलवेधसे कुष्टरोग कोणवेधसे उच्चाटन, तालुवेधसे भय, स्तम्भवेधसे कुलका क्षय, कपाल (शिर) वेध और तुलावेधसे धनका विनाश होता है और क्लेश, लड़ाई-झगड़ा बना रहता है। इसलिए वेधोंका ऐसा फल जानकर घरको उक्त वेध दोषोंसे रहित शुद्ध बनाना चाहिए। प्रकृतमें ग्रन्थकारने इनमेंसे चार वेधोंका निरूपण ८८ और ८९वें श्लोकमें किया है। शेष भेदोंको सूचना ९०वें श्लोकमेंकी गई है । * प्रारम्भके और अन्तके प्रहरको छोड़ कर दूसरे और तीसरे प्रहरमें होनेवाली वृषभध्वज १. पढमत जाम वज्जिय धयाइ-दु-तिपहर-संभवा छाया । दुहहेऊ नायव्वा तओ पयत्तेण वज्जिज्जा ॥१४३॥ (वास्तुसार, गृहप्रकरण) * मूलामो आरंभो कोरइ पच्छा कमे कमें कुज्जा । सम्वं गणियविसुद्ध वेहो सम्वत्य वज्जिज्जा ॥११५॥ तलवेह कोणवेहं तालुयवहं कवालवेहं च । तह थंभ तुलावेहं दुवारवेहं च सत्तमयं ॥११६॥ सम-विसमभूमि कुंभि य जलपूरं परगिहस्स तलवेहो । कृणसमं जह कूणं न हबइ ता कूणवेहो य ॥११७॥ इक्कखणे नीचुच्तं पीढं तं मुणह तालुयावहं । वारस्सुवरिमपट्टे गम्भे पीठं च सिरवेई ॥१८॥ गेहस्म मज्झि भाए गंभेगं तं मुणेह उरसल्लं । अह बनलो विनलाई हविज्ज जा पंभवेहो सो ॥११९॥ हिट्ठिय-उवरि खणाणं हीणाहिय पीड तं तुलावेहं । पीडा समसंखाओ हवंति जइ तह न हु दोसो ॥१२०॥ दुम-कूव-यम-कोणय-किलाविद्ध दुवारवेहो य । गेहुन्च विउणभूमो तं न विन्दबुहा विति ॥१२१ वेधफलम्तलवेहि कुट्ठरोया हवंति उच्चे य कोणवेहम्मि । तालुय-चेहेण भयं कुलक्खयं भवेहेणं ॥१२२।। कावाल, तुलवेहे धणणासो हवइ रोरभावो य । इस वेहफलं नाउं सुद्ध गेहं करेअव्वं ॥१२३॥ (वास्तुसार, गृहप्रकरण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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