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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार तुलासङ्क्रान्तिषट्कं चेत्स्वस्मात्तु तिथेश्चलेत् । तदा दुस्थं जगत्सर्वं दुभिक्षडमरादिभिः ॥५४ दीपोत्सवदिने भौमवारो वह्निभयावहः । सङ्क्रान्तीनां च नैकटय शुभमर्धादकं न हि ॥५५ अन्तः स्थानं रवेज्येष्ठामावस्यां वीक्ष्य चिह्निताम्। तदुत्तरे स्याच्चेदिन्दोरस्तं तच्छुभदं भवेत् ॥५६ यावती भुक्तिराषाढे शुक्ल प्रतिपदादिने । पुनर्वसोश्चतुर्मास्यां वृष्टिः स्यात्तावती स्फुटम् ॥५७ अथवास्तु-शुद्धिगृहक्रमः'वैशाखे श्रावणे मार्गे फाल्गुने क्रियते गृहम् । शेषमासे पुन: पुण्यं पौषे वाराहसम्मतः ॥८ मृगसिंहकर्ककुम्भे प्राग्प्रत्यग्मुखं गहम् । वृषाजालितुलास्थे तु दिग्दक्षिणमुखं शुभम् ॥५९ कन्यायां मिथुने मोने धनुस्थे च रवौ सति । नैव कार्य गृहं कैश्चिदिदमप्यभिधीयते ।।६० स्वयोन्यक्ष स्वतारांशं स्थिरांशमधिकायकम् । अधिद्वादशकं त्रित्रिकोण-षट्काष्टकं शुभम् ॥६१ समाधिकव्ययं कर्तुः समानाय यथांशकम् । कुमासधिष्ण्यतारांश्च गृहं वज्यं प्रयत्नतः ॥६२ यदि तुला-संक्रान्तिषट्क ( तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुम्भ, मीन ) अपनी तिथिसे (?) चलते हैं अर्थात् जिस तिथिको तुला संक्रान्ति हो, उससे अग्रिम तिथिमें क्रमसे उक्त संक्रान्तियां होनेसे सारा जगत् दुर्भिक्ष, डमर ईति-भीति आदिसे दुःस्थित रहता है ।।५४|| यदि दीपोत्सव (दीपावलो) के दिन मंगलवार हो तो वह अग्निका भय-करता है। संक्रान्तियोंकी निकटतासे वस्तुओंकी मन्दी अच्छी नहीं होती ॥५५॥ ज्येष्ठ मासको अमावस्याके दिन सायंकालके समय रविमण्डलमें चिह्न (परिवेश) दिखाई दे और उत्तरकालमें यदि चन्द्र अस्त हो तो यह योग शुभप्रद हैं ॥५६॥ विशेषार्थ-श्लोक-प्रतिपादित ऐसा योग तब आता है जबकि उस दिन अमावस्या उदयकालमें १-२ घड़ी ही हो और दूसरे दिन द्वितीयाका क्षय हो तो अमावस्याकी रात्रिमें कुछ क्षण को चन्द्र-दर्शन और चन्द्रास्त होना संभव है। आषाढ़ मासमें शुक्ला प्रतिपदाके दिन पुनर्वसु नक्षत्रकी जितनी भुक्ति रहती है, उतनी ही वर्षा स्पष्टरूपसे होती है ॥५७॥ अब वास्तु-शुद्धि और गृह-निर्माणका क्रम कहते हैं-वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष और फाल्गुनमें गृह- निर्माण शुभ होता है। किन्तु शेष मासोंमेंसे पौष मासमें भी गृह-निर्माण वाराहसंहिता-सम्मत है ॥५८॥ मृग, सिंह, कर्क और कुम्भमें पूर्व दिशा या पश्चिम दिशाकी ओर गृहका मुख (द्वार) शुभ है । वृष, अजा, अलि और तुला राशिमें गृहका मुख दक्षिण दिशाकी ओर शुभ है ।।५९॥ कन्या, मिथुन, मीन और धनु राशिमें स्थित सूर्यके होनेपर गृह-निर्माण नहीं करना चाहिए, ऐसा कितने ही विद्वान् कहते हैं ॥६०॥ __ अपनी योनिका नक्षत्र, अपना तारांश स्थिरांश, अधिक आयवाला चतुर्थ-द्वादश (?) तीनों त्रिकोण अर्थात् प्रथम, नवम तथा षडाष्टक (छठा-आठवां) योग शुभ होता है ॥६१॥ गृह-कर्ताका (गृहपिण्ड क्षेत्रफलसे साधित) व्यय समान हो, अथवा अधिक हो, दोनोंकी आय समान हो तथा दोनोंका एक ही अंश एवं कुत्सित मास, नक्षत्र तथा तारा गृहमें प्रयत्नपूर्वक त्याज्य है ॥६२॥ १. वर्षप्रबोधः ९, ३१ । वइसाहे मग्गसिरे सावणि फग्गुणि मयंतरे पोसे। . सियपक्खे सुहदिवसे कए गिहे हवाइ सुहरिबी ॥२४॥ (वास्तुसार गृहप्रकरण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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