SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ श्रावकाचार-संग्रह धनं यच्चायते किञ्चित्कूटमानतुलादिभिः । नश्येत्तन्नैव दृश्येत तमपात्रेषु बिन्दुवत् ॥६५ बनी न्यासापहारं चणिपुत्रः परित्यजेत् । बङ्गीकुर्यात्ममामेकां भूपतो दुर्गतोऽपि च ॥६६ स्वच्छस्वभावविश्वस्ता गुरुनायककालकाः । देवा वृद्धाश्च न प्राजैवंञ्चनीया कदाचन ॥६७ भाव्यं प्रतिभुवोऽन्नेव दक्षिणेन न साक्षिणा । कोशपानादिकं चैव न कर्तव्यं यतस्ततः॥६८ साध्वर्ये जीवरक्षायै गुरुदेवगृहादिषु । मिष्याकृतेरपि नृणा शपथेर्नास्ति पातकम् ॥६९ बसम्पत्त्या स्वमात्मानं नैवावगणयेद बुधः । किन्तु कुर्याद् यथाशक्ति व्यवसायमुपायर्यावत् ॥७० वृष्टिशीतातपक्षोभकाममोहक्षुधावयः । न घ्नन्ति यस्य कार्याणि सो गुणी व्यवसायिनाम् ॥७१ यो चूत-धातुवादादिसम्बन्धाद् घनमीहते । स मषीकूर्चकैर्धाम धवलोकत्तु मोहते ॥७२ अन्यायिदेवपाखण्डितद्धनानां बनेन यः । वृद्धिमिच्छति मुग्धोऽसौ विषमत्ति जिजीविषुः ॥७३ गोदेवकरणारभतलावतंकपट्टकाः । ग्रामोताराश्च न प्रायाः सुखा व्यक्तं भवन्त्यमी ॥७४ अभिगम्यो नुभिर्योगक्षेमसिद्धचर्थमात्मनः । राजादि यकः कश्चिदिन्दुनेव दिवाकरः ॥७५ निन्वन्तु मानिन: सेवां राजादीनां सुखैषिणः । सवज्जना (?) स्वजनोद्वार-संहारौ न विना तथा ॥७६ - चाहिए ॥६॥ हीनाधिक नाप-तौल आदिके छल-प्रपंचसे जो कुछ भी धन उपार्जन किया जाता है, वह इस प्रकारसे नष्ट हो जाता है, जैसे कि अग्निसे सन्तप्त लोह पात्र (तवा) पर गिरा हुआ जल-बिन्दु दिखाई नहीं देता है ।।६५॥ धनी वणिक्-पुत्रको न्यास (धरोहर) के अपहरणका परित्याग करना चाहिए। राजासे दुर्गतिको प्राप्त हुए भी वणिक्को एकमात्र क्षमा ही अंगीकार करनी चाहिए ॥६६॥ बुद्धिमान पुरुषोंको चाहिए कि वे निर्मल स्वभाववाले विश्वस्त पुरुषोंको, गुरुजनोंको, स्वामियोंको, अधिकारियोंको, देवोंको और वृद्ध मनुष्योंको कदाचित् भी नहीं ठगें ॥६७। भूमि-पतिके अन्नके समान मनुष्यको देने में कुशल होना चाहिए । साक्षी नहीं होना चाहिए । तथा इसीलिए शपथ-सौगन्ध मादि भी नहीं करनी चाहिए ॥६८॥ साधुके लिए, जीव-रक्षाके लिए, गुरुजनोंके लिए तथा देवालय आदिके विषयमें मिथ्या की गई शपथोंसे भी मनुष्योंको कोई पाप नहीं लगता है ॥६॥ सम्पत्ति न होनेसे बुद्धिमान पुरुष अपनी आत्माको नीचा न गिने । किन्तु अर्थोपार्जनके उपायोंको जानकर यथाशक्ति योग्य व्यवसायको करे ॥७०॥ वर्षा, शीत, आतप ( गर्मी.) क्षोभ, काम, मोह और भूख-प्यास आदिके कष्ट जिस पुरुषके कार्योको नष्ट नहीं कर पाते हैं. वह व्यवसाय करनेवालोंमें गुणो है ॥७१।। जो मनुष्य जुआ, धातुवाद आदिके सम्बन्धसे धनको उपार्जन करनेकी इच्छा करता है, वह काली स्याहीकी कूचीसे भवनको धवल करनेकी इच्छा करता है ।७२।। जो अन्यायो पुरुषोंके धनसे, देव-धन (निर्माल्य-द्रव्य) से और पाखण्डी जनोंके धनसे अपने धनको वृद्धि चाहता है, वह मूढ़ जीनेकी इच्छा करता हुआ विषको खाता है ॥७३॥ गौ, देव और करण (अदायक) आरक्षक (कोटवाल) तलावर्तक (गुप्तचर) पट्टक (पट्टबन्ध, पटेल आदि) और गाँवका धन खानेवाले, ये सभी पुरुष प्रायः प्रकटरूपसे सुखी नहीं होते हैं ॥४॥ ___ अपने योग ( धनोपार्जन ) और क्षेम ( उपार्जित धनके संरक्षण ) की सिद्धिके लिए मनुष्योंको राजा, नायक आदि किसी श्रेष्ठ पुरुषके साथ समागम करना चाहिए। जैसे कि चन्द्र सूर्यके साथ समागम करता है ।।७५।। सुखके इच्छुक स्वाभिमानी पुरुष राजा आदिकी सेवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy