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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
शुद्धप्ररूपको ज्ञानी क्रियावानुपकारकः । धर्मविच्छेदरक्षी यो गुरुगौरवमर्हति ॥१८७ विचारावसरे मौनी लिप्सुधिप्सुश्च केवलम् । सर्वत्र चाटुवादी च गुरुभक्तिपरो मतः ॥१८८
इत्थं महाब्रह्ममुहूर्तमादो कृत्वाऽम्यधायि प्रहरस्य कृत्यम् । यस्य प्रकेशे तरणेरिवोच्च वेदवश्यं कमलावबोषः ॥१८९ इति श्रीजिनचन्द्राचार्यशिष्य-श्रीकुन्दकुन्दस्वामिविरचिते
श्रावकाचारे दिनचर्यायां प्रथमोल्लासः ॥१॥
गुरु कैसा हो ? जो शुद्ध धर्मका निरूपक हो, ज्ञानी हो, क्रियावान् हो, दूसरोंका उपकारक हो, धर्मके विच्छेदकी रक्षा करनेवाला हो, ऐसा जो गुरु है, वही गौरवके योग्य है ।।१८७॥ शिष्य कैसा हो? जो तत्त्वके विचार करनेके समय मौन धारण करे, एकमात्र ज्ञानोपार्जनका इच्छुक हो, गुरुको प्रसन्न रखनेवाला हो, और सर्वत्र गुरुके मनको अनुरंजन-कारक वचनोंका बोलनेवाला हो तथा गुरु भक्ति में तत्पर हो । यही सच्ची गुरु भक्ति है ।।१८८।। इस प्रकार महान् ब्रह्ममुहूर्तमें उठकर और आदिमें ही जो कार्य करनेके योग्य हैं, उन्हें करना चाहिए, तथा प्रथम पहरके जो कर्तव्य हैं उनको मैंने कहा । जिसके शिर पर गुरुजनोंका वरद हस्त है, वह अवश्य ही कमलोंको विकसित करनेवाले सूर्यके समान प्रकाशमान होगा ॥१८९॥ इस प्रकार श्री जिनचन्द्राचार्यके शिष्य श्री कुन्दकुन्दस्वामि-विरचित श्रावकाचारमें
दिनचर्यांका वर्णन करने में यह प्रथम उल्लास समाप्त हुआ।
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