________________
। १७१) ५. प्रतिदिन देव-दर्शन और यथा संभव जिन-पूजन करना तथा शास्त्र-स्वाध्याय नियमसे करना।
६. मुनि, श्रावक एवं साधर्मी भाइयोंको आहारादि कराना। ७. गुरुजनोंको सेवा करना और यथा शक्ति दान देना।
ग्यारह प्रतिमाओं के धारकोंको नैष्ठिक कहते हैं और जीवनके अन्तमें समाधिमरण कर आत्मार्थके साधन करनेवालोंको साधक कहते हैं। अतः नैष्ठिक श्रावक बनने और समाधिमरण करनेकी प्रतिदिन भावना करनी चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org