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( १६६ ) विधिपूर्वक गाय-भैंसको दुहकर तत्काल उष्णकर-आगपर उफान देकर, निर्दोष जामन देकर, जमाये गये दहीको आठ पहरके भीतर ही मथकर निकाले हुए मक्खनको तत्काल आगपर रखकर ताये हुए घीको मर्यादा सामान्यरूपसे एक वर्ष बतलायी गयी है। फिर भी यदि किसी कारणवश उसका वर्ण रस जब विकृत हो जाय, तभीसे वह अभक्ष्य हो जाता है।
इसी प्रकार तिल-सरसों आदिका तेल घानीको साफ करके अपने सामने निकाला गया हो और उसमें जेलका अंश भी न रहे, उस तेलको मर्यादा भी एक वर्षकी कही गयी है, फिर भी यदि किसी कारणवश उसका वर्ण-रस जब बिगड़ जाय, तभीसे वह अभक्ष्य हो जाता है। वर्ण-रस बिगड़नेका अर्थ है चलित रस हो जाना। चलित रसवाले घी-तेलमें उसी वर्णके सम्मूच्छिम त्रसजीव उत्पन्न हो जाते हैं, अतः चलित रस घी-तेल और चलित रसवाले मिष्ठान-पक्वान्न भी अभक्ष्य जानना चाहिए।
मर्यादाके बाहिर तो सभी भक्ष्य पदार्थ अभक्ष्य हैं। किन्तु मर्यादाके भीतर भी किसी कारणसे चलित रस हुए भक्ष्य पदार्थ भी अभक्ष्य हो जाते हैं।
___ बड़ी-पापड़ आदि जिस दिन बनाये जावें, उसी दिन भक्ष्य हैं। बड़ीको सुखाकर उसी दिन घी-तेलमें सेंक लेनेपर उसके खानेकी मर्यादा अन्नके समान जानना चाहिए। यही बात पापड़को घी-तेलमें तल लेनेपर लागू होती है।
औषधिके रूपमें काममें आनेवाले सभी प्रकारके द्राक्षासव आदि आसव मदिराके समान ही अभक्ष्य हैं । इसी प्रकार जिनमें मद्यकी या मधुकी पुट दी गई है, ऐसी सभी प्रकारकी देशी या विदेशी औषधियां अभक्ष्य हैं।
वर्तमानमें प्रचलित कितनी ही अंग्रेजी दवाएँ पशुओंके जिगर, कलेजा आदिसे बनाई जाती हैं, वे तो अभक्ष्य हैं ही, किन्तु ऐसे इंजेक्शन भी लगवानेके योग्य नहीं हैं जो कि पशुओंके विभिन्न रस-रक्तादिसे बनाये जाते हैं।
३९. द्विदलान्नको अभक्ष्यताका स्पष्टीकरण कच्चे दूधमें, कच्चे दूधसे जमे दहीमें और उसके तक्र (ताक छांछ) में दो दानेवाले अन्न (चना, मूंग, उड़द, मसूर आदि) के चून, आटे आदिके मेलसे बननेवाले कढ़ी, रायता, दही बड़े आदि पदार्थोंको द्विदल या द्विदलान्न कहते हैं। ऐसे द्विदलान्नके मुखमें जानेपर जीभ-लारके संयोगसे सम्मूच्छिम त्रसजीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है, इसलिए द्विदलान्नको अभक्ष्य माना गया है।
आजसे ५० वर्ष पूर्वको बात है, मैं ग्रीष्मावकाशमें ललितपुर ठहरा हुआ था और प्रतिदिन प्रातः स्नानार्थ नदी पर जाया करता था । एक मुसलमानको पीजरेमें तीतर और हाथमें कटोरा लिए प्रतिदिन देखा करता था। वह कटोरेमें रखे छाँछ और बेसन (चनेकी दालका चून) को अंगुलीसे घोलकर, उसमें थूककर और सूर्यको किरणोंकी ओर कुछ देर दिखाकर उसे कबूतरके आगे पिंजरेमें रख देता था। जब एक दिन मैंने उसके ऐसा करनेका कारण पूछा तो उसने बताया कि छांछमें घुले उस बेसनमें थूककर सूर्यको किरणोंके योगसे कीड़े पड़ जाते हैं, जिन्हें यह तीतर
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