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उस व्यवस्थाके अनुसार १ से लेकर ३३ अंश तकके व्रत-भंगको अतिक्रम, ३४ से लेकर ६६ अंश तकके व्रत-भंगको व्यतिक्रम, ६७ से लेकर ९९ अंश तकके व्रत-भंगको अतिचार और शत-प्रतिशत व्रत-भंगको अनाचार समझना चाहिए।
परन्तु प्रायश्चित्त-शास्त्रोंके प्रणेताओंने उक्त चारके साथ 'आभोग' को बढ़ा करके व्रत-भंगके पाँच विभाग किये हैं। उनके मतसे एक बार व्रत खण्डित करनेका नाम अनाचार है और व्रत खण्डित होनेके बाद निःशंक होकर उत्कट अभिलाषाके साथ विषय-सेवन करनेका नाम आभोग है। किसी-किसी प्रायश्चित्त-शास्त्रकारने अनाचारके स्थानपर 'छन्नभंग' नाम दिया है।
प्रायश्चित्त-शास्त्रकारोंके मतसे १ अंशसे लेकर २५ अंश कके व्रत-भंगको अतिक्रम, २६ से लेकर ५० अंश तकके व्रत-भंगको व्यतिक्रम, ५१ से लेकर ७५ अंश तकके व्रत-भंगको अतिचार, ७६ से लेकर ९९ अंश तकके व्रत-भंगको अनाचार और शत-प्रतिशत व्रत-भंगको आभोग समझना चाहिए।
श्रावकके जो बारह व्रत बतलाये गये हैं उनमें से प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतिचार बतलाये गये हैं । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र अ०७ के सू० २४ से सिद्ध है
'व्रत-शीलेषु पंच पंच यथाक्रमम् ।' एसी दशामें स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच ही अतिचार क्यों बतलाये गये हैं ? तत्त्वार्थसूत्रकी उपलब्ध समस्त दिगम्बर और श्वेताम्बर टीकाओंके भीतर इस प्रश्नका कोई उत्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। जिन-जिन श्रावकाचारोंमें अतिचारोंका निरूपण किया गया है उनमें, तथा उनकी टीकाओंमें भी इस प्रश्नका कोई समाधान नहीं मिलता है। पर इस प्रश्नके समाधानका संकेत मिलता है प्रायश्चित-विषयक ग्रन्थोंमें-जहाँपर कि अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार और आभोगके रूपमें व्रत-भंगके पाँच प्रकार बतलाये गये हैं।
__कुछ वर्ष पूर्व अजमेरके बीसपंथ धडेके शास्त्र-भंडारसे जो 'जीतसार-समुच्चय' नामक ग्रंथ उपलब्ध हुआ है, उसके अन्त में 'हेमनाभ' नामका एक प्रकरण दिया गया है। इसके भीतर भरतके प्रश्नोंका भ० ऋषभदेवके द्वारा उत्तर दिलाया गया है। वहाँपर प्रस्तुत अतिचारोंकी चर्चा इस प्रकारसे दी गई है
दृग्-व्रत-गुण-शिक्षाणां पंच-पंचैकशो मलाः ।
अतिक्रमादिभेदेन पंचषष्टिश्च सन्ततेः ।। अर्थात् सम्यग्दर्शन, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त इन तेरह व्रतोंमेंसे प्रत्येक व्रतके अतिक्रम आदिके भेदसे पाँच-पाँच मल या दोष होते हैं अतएव सर्वमलोंकी संख्या (१३ ४ ५ - ६५) पैसठ हो जाती है।।
इसके आगे सातवें आदि श्लोकोंमें अतिक्रम-व्यतिक्रम आदिं पाँचों भेदोंका स्वरूप देकर कहा गया है
त्रयोदश-व्रतेषु स्युर्मानस-शुद्धिहानितः । त्रयोदशातिचारास्ते विनश्यन्त्यात्मनिन्दतात् ।। १०॥
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