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________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार कदलीघातवज्जातु केषाञ्चिज्जायते मृतिः । स्तोककालेन कर्तव्या तैश्च पञ्चनमस्कृतिः ॥११८ सन्तः सदैव तिष्ठन्तु दुःखभीताः समाधिना । को वेत्ति मरणं कस्य कदा कुत्र कथं भवेत् ॥११९ इत्थं मयताः प्रतिमाः समस्ताः सल्लेखनान्ताः कथिताः स्वशक्त्या। ये विभ्रति ज्ञातजिनागमार्था भवन्ति ते सन्मतयः कृतार्याः ॥१२० इति पण्डितश्रीगोविन्दविरचिते पुरुषार्थानुशासने गृहस्थधर्मोपदेशाख्योऽयं षष्ठोऽवसरः परः। अवश्य ही यथाशक्ति उसे धारण करनेका प्रयत्न करना चाहिए ॥ ११७ ।। यदि कदाचित् किन ही जीवोंका मरण कदलीघातके समान अकस्मात् अल्पकालमें ही आ उपस्थित हो तो उन्हें पंचनमस्कार मंत्रका स्मरण करते हुए प्राणोंका त्याग करना चाहिए ॥ ११८ ।। संसारके दुःखोंसे डरनेवाले सन्त पुरुषोंको सदा ही समाधिसे रहना चाहिए । कौन जानता है कि कब किसका कहाँपर और कैसे मरण हो जाय ।। ११९ ॥ ___ इस प्रकार मैंने सल्लेखना पर्यन्त इन समस्त प्रतिमाओंको अपनी शक्तिके अनुसार कहा। जो जिनागमके अर्थ ज्ञाता सन्मति पुरुष इनको धारण करते हैं, वे कृतार्थ होते हैं, अर्थात् अपने अभीष्ट प्रयोजनभृत मोक्षको प्राप्त करते हैं ।। १२० ॥ इस प्रकार पंडित श्री गोविन्द-विरचित पुरुषार्थानुशासनमें गृहस्थ धर्मका उपदेश करनेवाला यह छठा अवसर समाप्त हुवा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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