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________________ ५२७ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार अथाऽरम्भपरित्यागो विधेयो भवभीरुणा । गृहस्थेन कुटुम्बस्य न्यस्य भारं सुतादिषु ॥४२ आरम्भकमंतो हिंसा हिंसातः पातकं महत् । पातकादुर्गतिस्तस्यां दुःसहं दुःखमङ्गिनाम् ॥४३ कृत्वाऽऽरम्भं कुटुम्बार्थ स्वस्य दुःखं करोति कः । मत्वेति सुमतिः कुर्यात्सर्वथाऽरम्भवर्जनम् ॥४४ येषां कृते जनः कुर्यादारम्भाद् भूरिपातकम् । तद्विपाके सहायाः स्युबंन्धवो नैव तस्य ते ॥४५ दुःखभोतरिति ज्ञात्वाऽऽरम्भो यैस्त्यजतेऽखिलः । नाल्पोऽप्यघास्रवस्तेषां स्यान्महावतिदामिव ॥४६ (इत्यारम्भत्यागप्रतिमा ८) ततो गृहस्थ एवायं त्यजेत्सर्व परिग्रहम् । तत्स्वामित्वं सुते न्यस्य स्वयं तिष्ठेन्निराकुलः ॥४७ त्यक्त्वा स्त्रीपुत्रवित्तादौ ममतां समतां भजेत् । स्वजनान्यजन-द्वेषि सुहृत्-स्वर्णतृणादिष्ट ॥४८ सुतेनान्येन वा केनचिदणुव्रतधारिणा । सप्रश्रयं समाहतो गत्वा भुज्जीत तद्-गहे ॥४९ सरसं नीरसं वाऽन्नमेकवारं समाहरेत् । तिष्ठेच्च क्वचिदेकान्ते धर्मतानो दिवानिशम् ॥५० पठेत् स्वयं श्रुतं जैनं पाठयेदपरानपि । पूजयेत्स्वयमहन्तं परांश्चार्चामुपादिशेत् ॥५१ वत्तं सुतादिभिर्यावत्कार्यमेवौषधादिकम् । वस्त्रादिकं च गृह्णीयात्सुसन्तुष्टो जितेन्द्रियः ॥५२ इत्थं परिग्रहत्यागसुस्थिरीभूतचेतसः । न स्यान्महाव्रतस्येव कर्मणामास्रवोऽसताम् ॥५३ : ___ (इति परिग्रहत्यागप्रतिमा ९) करना चाहिए ॥ ४१ ।। इस प्रकार सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमाका वर्णन किया। ___ अब इसके पश्चात् संसारसे डरने वाले पुरुषको कुटुम्बका भार पुत्र आदिके ऊपर डालकर आरम्भका त्याग करना चाहिए ।। ४२ ।। क्योंकि गृहस्थीके आरंभी कार्योंसे हिंसा होती है । हिंसासे महापापोंका संचय होता है, पापोंसे दुर्गति प्राप्त होती है और दुर्गतिमें प्राणियोंको दुःसह दुःख भोगना पड़ता है ॥ ४३ ॥ कौन ऐसा बुद्धिमान मनुष्य है जो कुटुम्बके लिए आरंभ करके अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है ? ऐसा जानकर सुबुद्धि वाले पुरुषको आरंभका सर्वथा त्याग करना चाहिए ॥ ४४ ॥ जिन कुटुम्बी जनोंके लिए यह मनुष्य आरम्भ करके भारी पापोंका उपार्जन करता है, उन पापोंके लिए परिपाकके समय वे बन्धुजन उसके नहीं होते हैं ।।४५।। ऐसा जान कर दुःखोंसे डरने वाले श्रावक समस्त आरंभका त्याग करते हैं। आरंभ त्यागीके आरंभजनित अल्प भी पाप महाव्रती पुरुषोंके समान नहीं होता है॥४६॥ इस प्रकार आठवों आरम्भ त्याग प्रतिमाका वर्णन किया। आरम्भ-त्याग करनेके पश्चात् उस गृहस्थको सर्व परिग्रह भी छोड़ देना चाहिए । परिग्रहका स्वामित्व पुत्र पर डालकर स्वयं निराकुल होकर रहे ॥ ४७ ॥ स्त्री, पुत्र और धन आदिमें ममताको छोड़कर समताको धारण करना चाहिए । तथा स्वजन-परजन, शत्रु-मित्र और सुवर्णतण आदिमें समभाव रखना चाहिए ॥४८॥ उस समय पत्रके द्वारा अथवा अणव्रतधारी किसी विनयपर्वक बलाये जाने पर उसके घर जाकर भोजन करे॥४९॥ भोजनके समय सरस या नीरस जैसा अन्न मिल जाय, उसे एक बार ही खावे और दिन-रात धर्ममें संलग्न होकर किसी एकान्त स्थानमें रहे ॥५०॥ स्वयं जैनशास्त्र पढ़े और दूसरोंको पढ़ावे, स्वयं जिनदेवका पूजन करे और अन्यको भी पूजन करनेका उपदेश देवे ॥५१॥ आवश्यक कार्य होने पर पुत्र आदिके द्वारा दिये गये औषधि आदिको और वस्त्र आदिको अत्यन्त सन्तुष्ट होता हुआ जितेन्द्रिय बन कर ग्रहण करे ।। ५२ । इस प्रकार परिग्रहके त्यागसे अत्यन्त स्थिर चित्तवाले उस परिग्रहत्यागी पुरुषके महाव्रतीके समान अशुभ कर्मोका आस्रव नहीं होता है ॥ ५३॥ इस प्रकार नवमी परिग्रह त्याग अन्यकेदार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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