SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 557
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२४ भावकाचार-संग्रह इत्युत्तमोपवासस्याम्यवाय्येष मया विषिः। येमध्यमोपवासादिभेदा शेया जिनागमात् ।।५ संयमारामविच्छेवप्रवृत्ता अक्षदन्तिनः । निरोद्ध नैव शक्यन्त उपवासाकुशं विना ॥६ स्वायम्यः करणान्यत्र निवोपवसन्ति यत् । तत एवोपवासोऽयमित्याचानिरुच्यते ॥७ ग्वा यथा शुषाचाभिर्वाषाभि ष्यते वपुः । तथा तथा परा कर्मनिर्जरा जायते नृणाम् ।।८ मोपवासोत्पबाधासु संक्लिश्यन्ते बुधास्ततः । स्मृत्वा च नारकीर्वाधा अवाग्गोच्चरदुःखदाः ॥९ दुर्बलत्वं शरीरे स्यादुपवासेन यन्नृणाम् । तन्मन्ये गलितानन्तदुःकर्माणुचयोद्भवम् ।।१० ततः कुर्यायथाशक्ति युक्तं ज्ञात्वा विचक्षणः । सूपवासाविकं किञ्चिद् व्रतं सर्वेषु पर्वसु ॥११ कालिकाहारमेकान्नमेकस्थानं रसोजानम् । इत्येकभक्तिभेदेषु कुर्याद्वकतमं सुधीः ॥१२ सुसं शिवे शिवं कर्महानितः सोपवासतः । कार्य एवोपवासोऽतः शक्ती सत्यां सुखाथिभिः ॥१३ यद्वन्तीह तीर्थेशाश्चक्रिणश्चापंचक्रिणः । तत्प्राकृतोपवासानामेतद् ज्ञेयं परं फलम् ॥१४ मातङ्गोऽप्युपवासेनार्जुनो निर्जरतामितः। श्रेया श्रीरामचन्द्रोक्तात्कथा पुण्यात्रवादियम् ॥१५ एकेनेवोपवासेन नागदत्तो वणिक्सुतः । मृत्वाऽभूवमरश्च्युत्वा ततोऽभूवत्र विश्रुतः ॥१६ कामो नागकुमाराल्यो लक्षकोटीभटः पटुः । घरमाङ्गः कथाऽस्येयं ख्यातेवास्त्याहते मते ॥१७ क्रियाएँ करते हुए बिता कर तीसरे दिन मध्याह्नके समय पात्रको दान देकर बचे हुए अन्नको खावे ॥४॥ यह उत्तम उपवासकी विधि मैंने कही। उपवासके जो मध्यम आदि अन्य भेद हैं, उन्हें जिनागमसे जानना चाहिए ॥ ५ ॥ __ संयमरूपी उद्यानके विच्छेद करनेमें प्रवृत्त इन इन्द्रियरूपी गजोंको उपवासरूपी अंकुशके विना रोकना शक्य नहीं है ।। ६ ॥ अपने अपने विषयोंसे इन्द्रियोंको निवृत्त करके जो आत्म- . स्वरूपमें निवास करते हैं, वही उपवास कहा जाता है, आचार्य उपवासकी ऐसी निरुक्ति करते हैं॥७॥ जैसे जैसे भूख-प्यास आदिकी बाधाओंसे शरीर पीड़ित किया जाता है, वैसे-वैसे ही मनुष्योंके भारी कर्म-निर्जरा होती है ॥ ८॥ इसलिए ज्ञानी जन उपवास करनेसे उत्पन्न होनेवाली भूख-प्यास आदिकी बाधाओंके समय नरकोंमें होनेवाली वचन अगोचर दुःख देनेवाली बाधाओंको स्मरण कर संक्लेशको प्राप्त नहीं होते हैं ॥ ९ ॥ उपवास करनेसे मनुष्योंके शरीरमें जो दुर्बलता बाती है, वह दुष्कर्मोके अनन्त परमाणुसमुदायके गलनेसे उत्पन्न हुई है, ऐसा में मानता हूँ॥ १०॥ ऐसा जानकर चतुर पुरुषको सभी पोंमें यथाशक्ति उपवास आदि कुछ-नकुछ योग्यव्रत अवश्य ही करना चाहिए ।। ११ ।। पर्वके दिन यदि उपवासकी शक्ति न हो, तो कांजिक आहार, एक अन्नका बाहार, एक स्थान (एक वासनसे बैठकर एक बार आहार), रसत्याग, इत्यादि जो एकाशनके भेद हैं, उनमेंसे किसी एकको बुद्धिमान् मनुष्य अवश्य ही करें ॥ १२॥ सुख मोक्षमें है, वह मोक्ष कोकी हानिसे होता है, कर्मोकी हानि उपवाससे होती है। इसलिए सुखार्थी जनोंको शकि होने पर उपवास करना ही चाहिए ।। १३ ।। इस संसार में जो तीर्थकर चक्रवर्ती, अर्धचक्री आदि शलाका पुरुष होते हैं, वह उनके द्वारा पूर्वजन्ममें किये गये उपवासोंका ही उत्तम फल जानना चाहिए ॥ १४ ॥ अर्जुन नामका चाण्डाल भी उपवासके फलसे देवपदको प्राप्त हुमा, यह कथा श्रीरामचन्द्रमुमुक्षु-रचित पुण्यास्रव कथाकोशसे जाननी चाहिए ॥१५॥ एक ही उपवाससे वणिक-पुत्र नागदत्त मरकर देव हुआ और फिर वहाँसे च्युत होकर संसारमें प्रसिद्ध कुशल कोटीभट नागकुमार नामका चरमशरीरी कामदेव हुआ। यह कथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy