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________________ ५२२ श्रावकाचार-संग्रह यस्तु वक्त्यचनेऽप्येनः स्यात्पुष्पावचयादिभिः । न ततस्तदनुष्ठेयं स इत्यं प्रतिबोध्यते ॥८४ भक्त्या कृता जिनाचैनो हन्ति भूरि चिराजितम् ।। या सा किं तन्न हन्तीभं यः सिंहः स न कि मृगम् ॥८५ मत्वेति गहिणा कार्यमर्चनं नित्यमहताम् । तेषां प्रत्यक्षमप्राप्तौ पूज्यास्तत्प्रतिमा बुधैः ॥८६ प्रतिमाञ्चेतना सूते किं पुण्यं नेति मन्यते । भक्तिरेव यतो दत्ते नराणां विपुलं फलम् ॥८७ स्त्री-शस्त्राविविनिर्मुक्ताः प्रतिमाश्च जिनेशिनाम् । रागद्वेषविहीनत्वं सूचयन्ति नृणामहो ॥८८ शान्ताः शुद्धासनाः सौम्यदृशः सर्वोपधिच्युताः । सन्मति जनयन्त्यहत्प्रतिमाश्चेक्षिताः सताम् ॥८९ प्रतिमातिशयोपेता पूर्वा व्यङ्गापि पूज्यते । व्यङ्गाऽन्या शिरसा सापि क्षिप्याब्धिस्वापगादिषु ॥९० अब्रह्मारम्भवाणिज्यादिकर्मनिरतो गृही । स्नात्वैव पूजयेद्देवान् परिधायाच्छवाससी ॥९१ कि कृतप्राणिघातेन स्नानेनेतीह वक्तिः यः । स स्वेदाधपनोदाय स्नानं कुर्वन्न लज्जसे ॥९२ मत्वेति निर्जन्तुकस्थाने सलिलैर्वस्त्रगालितैः । पूजार्थमाचरेत्स्नानं सन्मन्त्रणामृतीकृतैः ॥९३ सरित्यन्यत्र चागाधपयःपूर्णे जलाशये। वातातपपरिस्पृष्ट प्रविश्य स्नानमाचरेत् ॥९४ वाताहतं घटीयन्त्रनावाधास्फालितं जलम् । सूर्याशुभिश्च संस्पृष्टं प्रासुकं यतयो जगुः ॥९५ गहस्थ आरम्भ-जनित पापसे केसे छूटेगा ? अर्थात् नहीं छूट सकेगा ।। ८३ ॥ जो यह कहता है कि पुष्पोंको वृक्षोंसे तोड़ने आदिसे पूजन करने में पाप होता है, इसलिए पूजन नहीं करना चाहिए, उसे इस प्रकारसे प्रतिबोधित करते हैं ।। ८४ ।। भक्तिसे की गई जो जिन-पूजा चिरकालके उपार्जित भारी पापोंका विनाश करती है, वह क्या पुष्प संचय आदिसे उत्पन्न हुए अल्प पापका भी विनाश नहीं करेगी? अर्थात् अवश्य ही करेगी। जो सिंह हाथीको मारता है, वह क्या मृगको नहीं मार' सकता है ।।८५॥ ऐसा जानकर गृहस्थको नित्य ही अरहन्तोंका पूजन करना चाहिए। उनकी प्रत्यक्ष प्राप्तिके अभावमें विद्वानोंको उनकी प्रतिमाएं पूजनी चाहिए ॥८६॥ जो ऐसा मानते हैं कि प्रतिमा तो अचेतन हैं, वह क्या पुण्य देगी? उसे ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि भक्ति ही मनुष्योंको विशाल फल देती है। भावार्थ-प्रतिमा तो कुछ फल नहीं देती, किन्तु उसके आश्रयसे की गई भक्ति ही फल देती है ॥ ८७ ।। अहो, स्त्री, शास्त्र आदिसे रहित जिनेश्वरोंकी प्रतिमाएं मनुष्योंको राग-द्वेषके अभावको सूचित करती हैं ॥८८ ॥ जिनेश्वरकी प्रतिमाएं शान्तस्वरूप हैं शुद्ध आसनवाली हैं, सौम्य दृष्टिकी धारक हैं, सर्व परिग्रह उपाधिसे रहित हैं। ऐसी जिनप्रतिमाएं दर्शन किये जाने पर सन्त जनोंको सन्मति उत्पन्न करती हैं ॥ ८९ ॥ अतिशय वाली प्राचीन खंडित हुई प्रतिमा भी पूजाके योग्य होती है। जो प्रतिमा शिरसे खंडित हो, उसे समुद्र, नदी आदिमें क्षेपण कर देना चाहिए ।। ९०॥ अब्रह्मा, भारम्भ, वाणिज्य आदि कार्यों में संलग्न गृहस्थको स्नान करके और शुद्ध स्वच्छ दो वस्त्र धारण करके ही देव-पूजा करनी चाहिए ॥ ९१ ।। जो मनुष्य यह कहता है कि पूजनके लिए प्राणिघात करनेवाले स्नानसे क्या प्रयोजन है ? वह मनुष्य पसीना आदिको दूर करनेके लिए स्नान करता हुआ क्यों लज्जित नहीं होता है ॥ ९२ ॥ ऐसा जानकर जीव-रहित स्थानमें वस्त्रसे छाने हुए और उत्तम मंत्र द्वारा अमृतरूप किये हुए जलसे पूजनके लिए स्नान करना चाहिए ॥ ९३ ॥ पवन और सूर्य-किरणोंसे परिस्पृष्ट (प्रासुक) नदी, सरोवर या किसी अगाध जल से भरे स्थानमें प्रवेश करके स्नान करे ॥ ९४ ॥ पवनसे आन्दोलित, अरहट से और पाषाण आदिसे टकराये हुए, तथा सूर्यको किरणोंसे तपे हुए जलको यतियोंने प्रासुक कहा है ।। ९५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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