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________________ तद्यथा श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन गत श्रावकाचार मध्यलोकसमचित्ते चिन्त्यते क्षीरसागरः जम्बूद्वीपप्रमं तत्र हेमाब्जं रक्तकेशरम् ॥४८ हेमाचलमयी तत्र कणिका तत्र विष्टरम् । चन्द्राभं तत्स्थितश्चात्मा ध्येयः कर्मक्षयोद्यतः ॥४९ (इति पार्थिवी धारणा ) नाभावब्जं ततो ध्यायेत् षोडशस्वरपत्रकम् । कणिकायां हकारं च रेफबिन्दुकलान्वितम् ॥५० तद्-रेफवह्निना पद्ममष्टकर्माष्टपत्रकम् । निर्दहेदावृतात्मानं हृदि स्थित मधोमुखम् ॥५१ बहिः स्थितत्रिकोणाग्निमण्डलोत्थाग्निना ततः । स्फुरज्ज्वाला कलापेन दहेद धातुमयं वपुः ॥५२ अन्तः कर्माणि मन्त्राग्निमंण्डलाग्निर्बहिर्वपुः । दग्ध्वा यातः स्वयं शान्ति दाह्याभावाच्छनैः शनैः ॥५३ (इति आग्नेयी धारणा) ततस्तद्भस्म निर्धूय प्रचण्डमरुता क्षणात् । पवनं च ततः शान्तिमानयेत्तं स्थिराशयः ॥५४ ५१९ नाभिस्थितात्ततोऽर्धेन्दुसमाद्वरुणमण्डलात् । तद्भस्म क्षालयेन्मेघाद् दिवश्च्योतत्पयः प्लवैः ॥५५ (इति वारुणी धारणा ) निर्धातुतनुमिद्धाभं स्वं ततोऽर्हत्समं स्मरेत् । स्फुरत्सिंहासनारूढं सर्वातिशयसंयुतम् ॥५६. (इति तत्त्वरूपवती धारणा) (इति मारुती धारणा ) जाननी चाहिए । उन्हें अब अनुक्रमसे कहते हैं ॥ ४७ ॥ यथा - ध्यानमें मध्य लोकके समान विस्तृत क्षीरसागर पहले विचारना चाहिए । पुनः उसके मध्यमें जम्बूद्वीपप्रमाण लाल परागवाला सुवर्ण कमल चिन्तन करे । पुनः उसके मध्य में सुवर्ण गिरि ( मेरु ) मयी कणिका चिन्तन करे और उसपर चन्द्रके समान आभावाला सिंहासन चिन्तन करे, पुनः उस सिंहासनके ऊपर स्थित और कर्मोंका क्षय करनेके लिए उद्यत अपने आत्माका ध्यान करे ।। ४८-४९ ।। ( यह पार्थिवी धारणा है | ) Jain Education International इस पार्थिवी धारणाके पश्चात् नाभिस्थान पर सोलह पत्र वाले कमलका विचार कर. एकएक पत्र पर अकाराद एक-एक स्वरका चिन्तन करे । और कणिका में रेफ-बिन्दु-कला सहित हकारका अर्थात् '' इस पदका ध्यान करे ।। ५० ।। उसके पश्चात् हृदयमें अधो मुखवाले अष्ट दल कमलका चिन्तन करे । उसके एक-एक पत्र पर एक-एक कर्मको स्थापित करे । पुनः नाभिकमलकी कणिका पर स्थित हैं के रेफसे उठती हुई अग्निके द्वारा आत्माको आवरण करने वाले उन आठ कर्म रूप कमल पत्रको जलता हुआ चिन्तन करे ॥ ५१ ॥ तत्पश्चात् बाहर स्थित तीन कोण वाले अग्नि मण्डलसे उठी हुई स्फुरायमान ज्वाला समूहवाली अग्निसे अपने सात धातुमयी शरीरको जलता हुआ चिन्तन करे ।। ५२ ।। इस प्रकार मंत्राग्नि भीतरके कर्मोंको और मण्डलाग्नि बाहरके शरीरको जलाकर जलाने योग्य अन्य पदार्थ के अभावसे धीरे-धीरे स्वयं शान्त हो रही है, ऐसा चिन्तन करे ।। ५३ ।। (यह आग्नेयी धारणा है ।) इसके पश्चात् प्रचण्ड वायुसे उस भस्मको क्षणमात्रमें उड़ाकर वह स्थिर चित्तवाला ध्याता उस पवनको धीरे-धीरे शान्तिको प्राप्त करावे || ५४ || (यह मारुती धारणा है ।) तत्पश्चात् नाभि-स्थित अर्धचन्द्र-सदृश वरुण - मण्डल रूप आकाश स्थित मेघसे बरसते हुएजलके प्रवाहों द्वारा उस भस्मको धो रहा हूँ, ऐसा चिन्तन करे ।। ५५ ।। (यह वारुणी धारणा है ।) तत्पश्चात् सर्वधातुओंसे रहित और बढ़ती हुई आभावाली अपनी आत्माको स्फुरायमान , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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