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________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य विरचित-रयणसार-गत श्रावकाचार ४८५ णाणी खवेइ कम्मं जाणवलेणेदि बोल्लए अण्णाणी। वेज्जो भेसज्जमहं जाणे इदि जस्सदे वाहो ॥६१ पुग्वं सेवइ मिच्छामलसोहणहेउ सम्मभेसज्जं । पच्छा सेवइ कम्मामयणासणचरियसम्मभेसजं॥६ अण्णाणी विसयविरत्तादो जो होइ सयसहस्सगुणो। णाणी कसायविरदो विसयासत्तो जिणुद्दिष्टुं ॥६३ विणओ भनिविहीणो महिलाणं रोयणं विणा णेहं । चागो वेरगविणा एवेदो वारिया भणिया ॥६४ सुहडो सूरत्तविणा महिला सोहग्गरहिय परिसोहा । वेरग्ग-णाण-संजमहोणा खवणा य किं विलम्भंते ॥६५ वत्यसमग्गो मुढो लोही लब्भ फल जहा पच्छा। अण्णाणी जो विसयपरिचत्तो लहइ तहा चेव ॥६६ वत्थु समग्गो णाणी सुपत्तवाणी फलं जहा लहइ । णाणसमग्गो विसयपरिचत्तो लहइ तहा चेव ॥६७ भू-महिला-कणयाई-लोहाहिविसहरो कहं पि हवे । समत्त-णाण-वेरग्गोसहमंतेण सह जिणुद्धिं ॥६८ पुव्वं जो पंचेंदियतणुमणुवचि हत्थपायमुंडाउ । पच्छा सिरमुंडाउ सिवगइपहणायगो होह ॥६९ पतिभत्ति विहीण सदी भिच्चो य जिणभत्तिहीण जइयो। गुरुभत्तिविहीण सिस्सो दुग्गइमग्गाणुलम्गयो णियमा ७० जो यह कहता है कि ज्ञानी ज्ञानके बलसे कर्मका क्षय करता है, वह अज्ञानी है । में वैद्य है और रोग-नाशक औषधिको जानता हूँ, क्या इतने ज्ञानमात्रसे व्याधि नष्ट हो जाती है ? अर्थात् नहीं होती है । भावार्थ-जैसे वैद्यको भी अपनी व्याधि दूर करनेके लिए औषधिका सेवन आवश्यक है, उसी प्रकार ज्ञानीको भी कर्म-क्षय करनेके लिए तपश्चरण करना आवश्यक है ।। ६१ ॥ मिथ्यात्वरूपी मलके शोधन करनेके लिए पहिले सम्यक्त्वरूपी औषधि सेवन करना चाहिए। पीछे कर्मरूपी रोगके नाश करनेके लिए सम्यक् चारित्ररूपी औषधि सेवन करना चाहिए ॥ ६२ ।। जो अज्ञानी विषयोंसे विरक्त है (किन्तु कषायोंसे विरक्त नहीं है, उसकी अपेक्षा कषायोंसे विरक्त किन्तु विषयों में आसक्त ज्ञानी पुरुष सैकड़ों हजारों गुणा श्रेष्ठ है, ऐसा जिनदेवने कहा है ।। ६३ ।। आन्तरिक भक्तिके बिना ऊपरी विनय, भीतरी स्नेहके बिना ऊपरी रोना और अन्तरमें वैराग्य भावके बिना बाह्य त्याग ये सब निरर्थक कहे गये हैं ॥ ६४ ॥ शुर-वीरताके बिना सुभट, सौभाग्यसे रहित स्त्रीको शृंगार-शोभा, तथा वैराग्य, ज्ञान और संयमसे ही तपश्चरण करनेवाले क्षपणक साधु कुछ भी अभीष्ट फल नहीं पाते हैं ॥ ६५ ॥ जैसे धन-धान्यादिक वस्तुओंसे सम्पन्न लोभी मूढ पुरुष वर्तमानमें न भोगकर पीछे उनको भोगनेरूप फलकी इच्छा करता है, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष वर्तमानमें विषय-सुखका त्याग करके आगामीकालमें उस सुखको पानेकी इच्छा करता है। इस प्रकार ये दोनों ही मूढ़ हैं ।। ६६ ॥ धन-धान्यादिसे सम्पन्न ज्ञानी सुपात्र-दान देनेवाला पुरुष जैसे वर्तमानमें और भविष्यमें सर्वत्र उत्तम फलको प्राप्त करता है, उसी प्रकार ज्ञानसम्पन्न और विषयोंका त्यागी दोनों लोकोंमें उत्तम फलको प्राप्त करता है ।। ६७ ।। भूमि, महिला, सुवर्ण आदिका लोभरूपी सर्प कैसा भी विषधारक हो, वह सम्यक्त्व, ज्ञान, वैराग्यरूपी औषधिमंत्रके द्वारा निर्विष हो जाता है, ऐसा जिन भगवान्ने कहा है ॥ ६८॥ ____ जो मनुष्य पहले पांचों इन्द्रियोंसे, शरीरसे, मनसे, वचनसे, हाथ और पैरसे मुडित होता है, अर्थात् इनको पहले अपने वशमें कर लेता है, फिर पीछे शिरसे मुण्डित होता है अर्थात् केशलोच करके साधु बनता है, वही पुरुष मोक्षगतिके पथका स्वामी होता है ।। ६९ ॥ पति-भक्तिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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