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________________ ४६६ श्रावकाचार-संग्रह न वदत्यनृतं स्थूलं न परान् वादयत्यपि । जीवपीडाकरं सत्यं द्वितीयं तदणुव्रतम् ॥१३ अवत्तपरवित्तस्य निक्षिप्तविस्मृतादितः । तत्परित्यजनं स्थूलमचौर्यव्रतमूचिरे ॥ १४ मातृवत्परनारीणां परित्याग स्त्रिशुद्धितः । स स्यात्पराङ्गनात्यागो गृहिणां शुद्धचेतसाम् ॥१५ धनधान्यादिवस्तूनां संख्यानं मुह्यतां विना । तदणुव्रतमित्याहुः पञ्चमं गृहमेधिनाम् ॥१६ शीलव्रतानि तस्येह गुणव्रतत्रयं यथा । शिक्षाव्रतं चतुष्कं च सप्तैतानि विदुर्बुधाः ॥१७ दिग्देशानर्थदण्डानां विरतिः क्रियते तथा । दिग्व्रतत्रयमित्याहुर्मुनयो व्रतधारिणः ॥ १८ कृत्वा संख्यानमाशायां ततो बहिनं गम्यते । यावज्जीवं भवत्येतद्दिग्व्रतमादिमं व्रतम् ॥१९ कृत्वा कालावध शक्त्या कियत्प्रदेशवर्जनम् । तद्देशविरतिर्नाम व्रतं द्वितीयकं विदुः ॥२० खनित्रविषशस्त्रादेर्वानं स्याद्वषहेतुकम् । तत्त्यागोऽनर्थदण्डानां वर्जनं तत्तृतीयकम् ॥ २१ सामायिकं च प्रोषधविधि च भोगोपभोगसंख्यानम् । अतिथीनां सत्कारो वा शिक्षाव्रतचतुष्कं स्यात् ॥२२ सामायिकं प्रकुर्वीत कालत्रये दिनं प्रति । श्रावको हि जिनेन्द्रस्य जिनपूजापुरःसरम् ॥२३ कः पूज्यः पूजकस्तत्र पूजा च कीदृशी मता । पूज्यः शतेन्द्रवन्द्यां हिर्निर्दोषः केवली जिनः ॥ २४ भव्यात्मा पूजकः शान्तो वेश्यादिव्यसनोज्झितः । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स शूद्रो वा सुशीलवान् ॥ २५ तीन योगों कृत, कारित, अनुमोदना इन तीन करणोंसे स जीवोंका घात नहीं करना सो पहिला स्थूल अहिंसाव्रत है ॥ १२ ॥ जो स्थूल झूठ न स्वयं बोलता है और न दूसरोंसे बुलवाता है और जीव पीडाकारी सत्यको भी नहीं बोलता है और न बुलवाता है वह दूसरा सत्याणुव्रत है ॥ १३ ॥ रखे हुए, या भूल गये या गिर गये आदि किसी भी प्रकारके अदत्त परद्रव्यका त्याग करना सो स्थूल अचौर्यव्रत कहा गया है ।। १४ ।। त्रियोगकी शुद्धिसे परस्त्रियोंको माता के समान मानकर उनके सेवनका त्याग करना सो शुद्ध चित्तवाले गृहस्थोंका पराङ्गनात्याग नामका चौथा अणुव्रत है ॥ १५ ॥ धन-धान्यादि वस्तुओंका मूर्च्छाके विना परिमाण करना सो गृहस्थोंका पांचवाँ अणुव्रत कहा गया है ।। १६ ।। तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन सातको ज्ञानी जनोंने गृहस्थके सात शीलव्रत कहा है ।। १७ ॥ दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति जो की जाती है उसे मुनिजन व्रतधारी श्रावकके तीन गुणव्रत कहते हैं ॥ १८ ॥ दशों दिशाओं में जाने-आनेका परिमाण करके यावज्जीवन उस सीमासे बाहिर नहीं जाना सो पहिला दिग्व्रत नामका गुणव्रत है ॥ १९ ॥ उसी दिग्व्रतको सीमा में भी कालकी मर्यादा करके शक्तिके अनुसार कितने ही प्रदेशमें जाने-आनेका त्याग करना सो देशव्रत नामका दूसरा गुणव्रत है ॥ ० ॥ भूमि खोदने के खन्ता, विष, शस्त्र आदि जो हिंसाके साघन हैं, उनका दूसरोंको देनेका त्याग करना सो अनर्थदण्डत्याग नामका तीसरा गुणव्रत है ॥ २१ ॥ सामयिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगसंख्यान और अतिथिसत्कार ये चार शिक्षाव्रत होते हैं ॥ २२ ॥ श्रावकको प्रतिदिन तीनों सन्ध्याकालोंमें जिनेन्द्रदेवकी जिनपूजापूर्वक सामायिक करना चाहिए ॥ २३ ॥ पूज्य कोन है, पूजक कौन है और पूजा कैसी मानी गई है ? इन प्रश्नोंका उत्तर क्रमश: इस प्रकार है-शत इन्द्रोंसे जिनके चरण पूजे जाते हैं, ऐसे निर्दोष केवली जिनेन्द्रदेव पूज्य हैं ॥ २४ ॥ जो भव्यात्मा शान्त भावोंका धारक है, और वेश्या बादि सप्तव्यसनोंका त्यागी है, ऐसा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और उत्तम शीलवान् शूद्र पूजक कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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