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________________ श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह ४५१ अट्ठविहच्वण काउं पुव्वपउत्तम्मि ठावियं पडिमा। पुज्जेह तग्गयमणो विविहहि पुज्जाहि भत्तीए ॥१२० पसमइ रयं असेसं जिणपयकमलेसु विण्णजलधारा। भिंगारणालणिग्गय भवंतभिगेहि कव्वुरिया ॥१२१ चंदणसुअंधलेओ जिणवरचलणेसु जो कुणइ भविओ। लहइ तणू विक्किरियं सहावसुयंधयं अमलं ॥१२२ पुण्णाणं पुज्जेहि य अक्खयपुंजेहि देवपयपुरओ। लन्भंति णवणिहाणे सुअक्खए चक्कवद्वित्तं ॥१२३ अलिचुंबिएहि पुज्जहि जिणपयकमलं च जाइमल्लीहिं । सो हवइ सुरवरिंदो रमेइ सुरतरुवरवणेहिं ॥१२४ दहिखोरसप्पिसंभवउत्तमचरुएहि पुज्जए जो हु। जिणवरपायपओरुह सो पावइ उत्तमे भोए ॥१२५ कप्पूरतेल्लपयलियमंदमरुपहयणडियदोवेहिं । पुज्जइ जिणपयपोमं ससिसूरविसमतणुं लहई ॥१२६ सिल्लारसअयरुमीसियणिग्गयध्वेहि बहलधर्महि । धूवइ जो जिणचरणेसु लहइ सुहवत्तणं तिजए ॥१२७ पक्केहि रसड्ढसुमुज्जलेहिं जिणचरणपुरओप्पविरहि । णाणाफहिं पावइ पुरिसो हियइच्छयं सुफलं ॥१२८ होती है, और पापरूपी सघन मेघ-पटलका समूह नष्ट हो जाता है। इसलिए इन यंत्रोंके द्वारा पंच परमेष्ठीको पूजा प्रतिदिन करनी चाहिए ॥ ११९ ॥ इस प्रकार अष्ट द्रव्यसे यंत्रोंके द्वारा पंच परमेष्ठीकी पूजा करके पहले अभिषेकके लिए विराजमान की हुई प्रतिमा में अपना मन लगाकर भक्ति-पूर्वक अनेक प्रकारके द्रव्योंसे अभिषेकके पश्चात् उस प्रतिमाकी पूजा करनी चाहिए ।। १२० ।। सुवर्ण-झारीकी नालीसे निकलती हुई और सुगन्धिके कारण चारों ओर भ्रमण करनेवाले भ्रमरोंसे अनेक वर्णोंको धारण करती हुई ऐसी श्रीजिनेन्द्र देवके चरण-कमलों पर छोड़ी हई जलकी धारा ज्ञानावरणादि सर्व पाप कर्मोंको शान्त करती है ।। १२१ ।। जो पुरुष जिनदेवके चरणों पर चन्दनका सुगन्धित लेप करता है, वह स्वर्गमें स्वभावसे सुगन्धित निर्मल वैक्रियिक शरीर प्राप्त करता है ।। १२२ ।। जो जिनदेवके चरणोंके आगे अखंड अक्षतोंके पुंजोंकी रचना करता है उसको अक्षय नौ निधियाँ और चक्रवर्तीका पद प्राप्त होता है ।। १२३ ॥ जो भ्रमरों द्वारा चुम्बित जाति-मल्लिका आदिके पुष्पोंसे जिनदेवके चरण-कमलोंकी पूजा करता है, वह देवोंका स्वामी इन्द्र होता है और कल्प वृक्षोंके उत्तम वनोंमें रमण करता है ॥ १२४ ।। जो दही, दूध और घीसे बने हुए उत्तम नैवेद्योंसे जिनदेवके पाद-पद्मोंकी पूजा करता है वह उत्तम भोगोंको प्राप्त करता है।॥ १२५ ।। जो मन्द-मन्द पवन झकोरोंसे नृत्य करते हुए, कर्पूर और घृत-तैलके प्रज्वलित दीपकोंसे जिनदेवके चरण-कमलोंकी पूजा करता है वह चन्द्र और सूर्यके समान प्रकाशमान शरीरको प्राप्त करता है ।। १२६ ॥ जिसमेंसे प्रचुर धूम्र निकल रहा है ऐसे शिलारस ( शिलाजीत ) अगुरु आदि द्रव्योंसे मिश्रित धूपसे जो जिनेन्द्र देवके चरणोंको सुगन्धित करता है वह तीन लोकमें परम सौभाग्यको प्राप्त करता है ।। १२७ ।। जो पुरुष उज्ज्वल, मिष्ट और पक्व नाना प्रकारके फलोंको जिनदेवके सामने चढ़ाता है, वह मनो-. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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