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________________ ४३५ पग्रनन्दिपञ्चविंशतिकागत श्रावकाचार देवाराधन-पूजनादिबहुषु व्यापारकार्येषु स पुण्योपार्जनहेतुषु प्रतिदिनं संजायमानेष्वपि । संसारार्णवतारणे प्रवहणं सत्पात्रमुद्दिश्य यत्तद्देशवतधारिणो षनवतो दानं प्रकृष्टो गुणः ॥७ सर्वो वाञ्छति सौख्यमेव तनुभत्तन्मोक्ष एव स्फुट दृष्टपादित्रय एव सिद्धयति स तन्निर्ग्रन्थ एव स्थितम् । तद-वृत्तिवपुषोऽस्य वृत्तिरशनात्तद्दीयते धावकैः काले क्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते ॥८ स्वेच्छाहारविहारजल्पनतया नोरुग्वपुर्जायते साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण सम्भाव्यते। कुर्यादौषधपथ्यवारिभिरिदं चारित्रभारक्षमं यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोत्तमात् ॥९ व्याख्या पुस्तकदानमुन्नतधियां पाठाय भव्यात्मनां भक्त्या यक्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तवाहुबुंधाः । सिद्धेऽस्मिञ्जननान्तरेषु कतिषु त्रैलोक्यलोकोत्सव-श्रीकारिप्रकटीकृताखिलजगत्कैवल्यभाजो जनाः ॥१० अपनी शुद्ध विवाहिता स्त्रीका सेवन करता है, दिग्वत और देशवतका पालन करता है, अनर्थदण्डोंका त्याग करता है, सामायिक और प्रोषधोपवास करता है, दान देता है और भोगोपभोग परिमाणको स्वीकार करता है ॥ ६॥ भावार्थ-इस पद्यमें ग्रन्थकारने गृहस्थको श्रावकके बारह व्रतोंको धारण करनेका उपदेश दिया है । यद्यपि पद्यमें परिग्रह परिमाण नामक पांचवें अणुव्रतका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, तथापि भोगोपभोग परिमाणवतके साथ उसका भी निर्देश किया जानना चाहिए । इसका कारण यह है कि सभी प्रकारका परिग्रह भोग और उपभोगरूपमें विभाजित है। उसका जीवनभरके लिए परिमाण पांचवां अणुव्रत कहलाता है और काल मर्यादाके साथ परिमाण करना तीसरा शिक्षावत कहलाता है, यही दोनों में अन्तर है। यद्यपि देशव्रतधारी धनवान् गृहस्थके पुण्योपार्जनके कारणभूत देव-पूजा, गुरु-उपासना आदि बहुतसे पवित्र व्यापारवाले कार्य प्रतिदिन होते रहते हैं, तथापि सत्पात्रको उद्देश्य करके जो दान दिया जाता है, वह संसार-सागरसे पार उतारनेमें जहाजके समान माना गया है, अतएव सत्पात्रको दान देना गृहस्थका सबसे महान् गुण है ॥७॥ सभी शरीरधारी प्राणी सुखको ही चाहते हैं। यह सच्चा सुख मोक्षमें ही है और वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयके होनेपर ही सिद्ध होता है। यह रत्नत्रय धर्म सर्व परिग्रहसे रहित निर्ग्रन्थ अवस्थामें ही प्राप्त होता है। यह निर्ग्रन्थता शरीरके सद्भावमें होती है। शरीरकी स्थिति अन्न-पानके करनेसे होती है और यह अन्न-पान श्रावकोंके द्वारा दिया जाता है। इसलिए अति कष्टमय इस कलिकालमें भी मोक्षपदवीकी प्रवृत्ति प्रायः गृहस्थोंके द्वारा दिये गये दानसे ही चल रही है ।। ८॥ अपनी इच्छाके अनुकूल आहार, विहार और संभाषणसे मनुष्योंका शरीर नीरोग रहता है। किन्तु साधुजनोंके लिए ये सभी बातें संभव नहीं हैं, इसलिए प्रायः करके उनका शरीर अशक्त या निर्बल बना रहता है । अतः यह आवश्यक है कि गृहस्थ उन्हें योग्य औषधि, पथ्य आहार और प्रासुक जल देकर प्रशान्त चित्त साधुओंके शरीरको चारित्रके भारको धारण करने में समर्थ बनावें। इस प्रकार मुनिधर्मको प्रवृत्ति उत्तम धावकोंसे ही चलती है ॥९॥ उन्नत बुद्धिवाले भव्यजनोंको पढ़नेके लिए भक्तिके साथ जो शास्त्रका दान दिया जाता है, तथा शास्त्रोंके अर्थ की व्याख्या की जाती है, उसे ज्ञानी जनोंने शास्त्र दान कहा है । इस शास्त्र या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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