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________________ पग्रनन्दिपञ्चविंशतिकामत श्रावकाचार ४३३ अन्तस्तत्त्वं विशुद्धात्मा बहिस्तत्त्वं दयाङ्गिषु । द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माद द्वितयमाश्रयेत् ॥६० कर्मभ्यः कर्मकार्येभ्यः पृथग्भूतं चिदात्मकम् । आत्मानं भावयेन्नित्यं नित्यानन्दपकप्रदम् ॥६१ इत्युपासकसंस्कारः कृतः श्रीपद्मनन्दिना । येषामेतदनुष्ठानं तेषां धर्मोऽतिनिर्मलः ॥६२ देशव्रतोद्योतन बाह्याभ्यन्तरसङ्गवर्जनतया ध्यानेन शुक्लेन यः कृत्वा कर्मचतुष्टयक्षायमगात्सर्वज्ञतां निश्चिताम् । तेनोक्तानि वचांसि धर्मकथने सत्यानि नान्यानि तद भ्राम्यत्यत्र मतिस्तु यस्य स महापापी न भव्योऽथवा ॥१ एकोऽप्यत्र करोति यः स्थितिमति प्रोतः शुचौ दर्शने ____स श्लाघ्यः खलु दुःखितोऽप्युदयतो दुष्कर्मणः प्राणिभृत् । अन्यैः किं प्रचुरैरपि प्रमुदितैरत्यन्तदूरीकृत स्फीतानन्दभरप्रवामृतपथैमिथ्यापथप्रस्थितैः ॥२ चिदानन्द चैतन्यरूप विशुद्ध आत्मा तो अन्तस्तत्त्व है और प्राणियोंपर दया करना बाह्य तत्त्व है। इन दोनों तत्त्वोंके सम्मिलन होने पर मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिए मोक्षार्थी जीवोंको दोनों ही तत्त्वोंका आश्रय लेना चाहिए ॥६०॥ कर्मोसे, तथा कर्मों के कार्योंसे सर्वथा भिन्न, चिदानन्द चैतन्य-स्वरूप, तथा नित्य आनन्दरूप मोक्षपदके देनेवाले आत्माकी ज्ञानी जनोंको नित्य भावना करनी चाहिए ।। ६१ ।। इस प्रकार श्रीपद्मनन्दि आचार्यने इस उपासक संस्कार (श्रावकाचार) की रचना की है। जिन पुरुषोंका अनुष्ठान इसके अनुसार होता है उनको ही निर्मल धर्म प्राप्त होता है ।। ६२ ।। इस प्रकार श्रीपद्मनन्दिपंचविंशतिका-में वर्णित उपासक संस्कार नामका अधिकार समाप्त हुआ। देशवतोद्योतन बाहिरी और भीतरी सर्व परिग्रहको छोड़नेसे शुक्लध्यानके द्वारा चार घातिया कर्मोका नाश करके निश्चितरूपसे सर्वज्ञताको प्राप्त हुए हैं, उन्हीं सर्वज्ञदेवके कहे हुए वचन धर्मके निरूपण करनेमें सत्य हैं, अन्य असर्वज्ञके द्वारा कहे गये वचन सत्य नहीं हैं, ऐसा भले प्रकारसे जानकर भी जिस मनुष्य को बुद्धि सर्वज्ञ-प्ररूपित धर्मके विषयमें भ्रमरूप हो रही है, तो समझना चाहिए कि वह मनुष्य महापापी है, अथवा भव्य नहीं है ।। १ ।। दुष्कर्मके उदयसे जो वर्तमानमें दुःखित भी हो, फिर भी वह यदि पवित्र सम्यग्दर्शनमें प्रीतिपूर्वक अपनी बुद्धिको निश्चल करता है, वह संख्यामें एक होनेपर भी प्रशंसनीय है। किन्तु जो अक्षय अनन्त आनन्दपुंजको देनेवाले अमृतपथ ( मोक्षमार्ग ) से अत्यन्त दूर हैं और अनन्त दुःखदायी मिथ्यात्वके मार्गपर चल रहे हैं, वे पुरुष यदि पूर्व पुण्यके उदयसे वर्तमानमें प्रमोदको भी प्राप्त हो रहे हैं, तो भी उनसे क्या ? अर्थात प्रशंसाके योग्य नहीं हैं ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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