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________________ ४३१ पअनन्दिपञ्चविंशतिकागत श्रावकाचार जीवहिंसादिसङ्कल्पैरात्मन्यपि हि दूषिते । पापं भवति जीवस्य न परं परपीडनात् ॥४१ द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः । तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम् ॥४२ अध्रुवाशरणे चैव भव एकत्वमेव च । अन्यत्वमशुचित्वं च तथैवानवसंवसै ॥४३ निर्जरा च तथा लोको बोधिदुर्लभधर्मता । द्वादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपुङ्गवः ॥४४ अध्रुवाणि समस्तानि शरीरादीनि देहिनाम् । तन्नाशेऽपि न कर्तव्यः शोको दुष्कर्मकारणम् ॥४५ व्याघ्रणाघ्रातकायस्य मृगशावस्य निर्जने । यथा न शरणं जन्तोः संसारे न तथाऽपदि ॥४६ यत्सुखं तत्सुखाभासो यदुःखं तत्सदञ्जसा । भवे लोकसुखं सत्यं मोक्ष एव स साध्यताम् ॥४७ स्वजनो वा परो वापि नो कश्चित् परमार्थतः । केवलं स्वजितं कर्म जीवेनैकेन भुज्यते ॥४८ क्षीर-नीरवदेकत्र स्थितयोर्देह-देहिनोः । भेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा ॥४९ तथाऽशुचिरयं कायः कृमिधातुमलान्वितः । यथा तस्यैव सम्पदिन्यत्राप्यपवित्रता ॥५० केवल अन्य प्राणियोंको पीड़ा पहुँचानेसे ही पाप नहीं होता है, अपितु जीवोंका हिंसा करनेके संकल्पसे आत्माके दूषित होने पर भी पाप होता है। इसलिए जीवोंकी हिंसा करना तो दूर रहे, हिंसा करनेके भावोंसे भी पापका बंध होता है। अत: जोव-हिंसाके भाव भी मन में नहीं आने देना चाहिए ॥ ४१ ।।। उत्तम पुरुषोंको सदा ही बारह भावनाओंका चिन्तवन करना चाहिए, क्योंकि भावनाओंका चिन्तवन कर्मोके क्षयका कारण होता ही है ।। ४२ ॥ जिनेन्द्र देवने ये बारह भावनाएँ कही हैं-१. अध्रुव ( अनित्य ), २. अशरण, ३ संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचित्व, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ और १२. धर्म । आगे कमशः इनका वर्णन किया जाता है ।। ४३-४४ ॥ १. अनित्य भावना-देह-धारियोंके शरीर, धन, धान्यादिक समस्त उपलब्ध पदार्थ अध्रुव हैं. अतः उनका विनाश अवश्यम्भावी है। फिर उनका विनाश होने पर मनुष्योंको भोक नहीं करना चाहिए, क्योंकि शोक करना खोटे कर्मोके बन्धका ही कारण है ।। ४५ ॥ २. अशरण भावना-जिस प्रकार निर्जन वनमें व्याघ्रके द्वारा मुखमें दाबेद र हरिणके बच्चेका कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार संसारमें आपत्ति आने पर इस जोवका भी कोई शरण नहीं है ।। ४६ ॥ ३. संसार भावना-हे आत्मन्, संसारमें जो सुख मालम होता है, वह वास्तविक सुख नहीं है किन्तु सुखाभास है, अर्थात् सुखके समान मालूम पड़ने पर भी दुःखका प्रतीकार मात्र है। किन्तु जो दुःख है, वह नियमसे सत्य है । वास्तविक सुख तो मोक्षमें ही है, अतः उस की प्राप्तिके लिए ही तुझे प्रयत्न करना चाहिए ।। ४७ ॥ ४. एकत्वभावना-यदि परमार्थ से देखा जाय तो संमारमें न कोई जीवका स्वजन है और न कोई परजन ही है। केवल यह अकेला जीव ही अपने पूर्वोपाजित कर्मके फलोंको भोगता है ।। ४८ ॥ ५. अन्यत्वभावना-मिले हुए दूध और पानीके समान एकत्र स्थित देह और देहीमें ही यदि भेद है अर्थात् अन्यपना है, तो अपनेसे प्रकट रूपसे ही भिन्न रहनेवाले स्त्री-पुत्रादिमें उसको कथा ही क्या है। भावार्थ-संसारके सर्व चेतन और अचेतन पदार्थ जोवसे भिन्न हैं ।। ४९ ।। ६. अशुचिभावना-कृमि, रस-रक्तादि धातु और मल-मूत्रादि मलसे संयुक्त यह शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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