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________________ हरिवंशपुराणगत श्रावकाचार स्वसंवेगविरागार्थं नित्यं संसारभोरुभिः । जगत्कायस्वभावौ च भावनोयो मनस्विभिः ॥ १२ इन्द्रियाद्या दश प्राणाः प्राणिभ्योऽत्र प्रमादिना । यथासंभवमेषां हि हिंसा तु व्यपरोपणम् ॥१३ प्राणिनो दुःखहेतुत्वादधर्माय वियोजनम् । प्राणानां तु प्रमत्तस्य समितस्य च न बन्धकृत् ॥१४ स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यङ्गहरणात्पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥९५ सदर्थमसदर्थं च प्राणिपीडाकरं वचः । असत्यमनृतं प्रोक्तमृतं प्राणिहितं वचः ॥१६ अदत्तस्य स्वयं ग्राहो वस्तुनश्चौर्यमीयते । संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तिर्यत्र तत्र तत् ॥१७ अहिंसादिगुणा यस्मिन् बृहन्ति ब्रह्मतत्त्वतः । अब्रह्मान्यत्तु रत्यर्थं स्त्रीपुंस मिथुनेहितम् ॥ १८ गवाश्वमणिमुक्तादौ चेतनाचेतने धने । बाह्येबाह्ये च रागादौ यो मूच्र्छापरिग्रहः ॥ १९ तेभ्या विरतिरूपायहसादीनि व्रतानि हि । महत्त्वाणुत्वयुक्तानि यस्य सन्ति व्रती तु सः ॥२० सत्यपि व्रतसम्बन्धे निःशल्यस्तु व्रती यतः । मायानिदानमिथ्यात्वं शल्यं शात्यमिव त्रिधा ॥ २१ सागारश्चानगारश्च द्वाविह व्रतिनौ मतो । सागारोऽणुव्रतोऽत्र स्यादनगारो महाव्रतः ॥२२ सागारो रागभावस्थो वनस्थोऽपि कथञ्चन । निवृत्तरागभावो यः सोऽनगारो गृहोषितः ॥ २३ ४२१ अपने अधिक गुणी मनुष्योंको देखकर हर्ष प्रकट करना प्रमोद भावना है । दुःखी मनुष्योंको देखकर हृदय में दयाभाव उत्पन्न होना करुणा भावना है और अविनेय मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मध्यस्थ भाव रखना माध्यस्थ्य भावना है ।। ११ ।। अपनी आत्मा संवेग और वैराग्य उत्पन्न करनेके लिए संसारसे भयभीत रहने वाले वित्रारक मनुष्यों को सदा संसार और शरीर के स्वभावका चिन्तवन करना चाहिए ।। १२ ।। इस संसार में प्राणियोंके लिए यथासंभव इन्द्रियादि दश प्राण प्राप्त हैं। प्रमादी बनकर उनका विच्छेद करना सो हिंसा पाप है || १३ || प्राणियों के दुःखका कारण होनेसे प्रमादी मनुष्य जो किसीके प्राणोंका वियोग करता है वह अधर्मका कारण है - पापबन्धका निमित्त है परन्तु समिति पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले प्रमाद रहित जीवके कदाचित् यदि किसी जीवके प्राणोंका वियोग हो जाता है तो वह उसके लिए बन्धका कारण नहीं होता है || १४ || प्रमादी आत्मा अपनी आत्माका अपने आपके द्वारा पहले घात कर लेता है पीछे दुसरे प्राणियोंका वध होता भी है और नहीं भी होता है ।। १५ ।। विद्यमान अथवा अविद्यमान वस्तुको निरूपण करने वाला प्राणो पीडाकारक वचन असत्य अथवा अनृत वचन कहलाता है । इसके विपरीत जो वचन प्राणियोंका हित करने वाला है वह ऋत अथवा सत्यवचन कहलाता है ।। १६ ।। बिना दी हुई वस्तुका स्वयं ले लेना चोरी कही जाती है । परन्तु जहाँ संक्लेश परिणामपूर्वक प्रवृत्ति होती है वहीं चोरी होती है ।। १७ ।। जिसमें अहिंसादि गुणोंकी वृद्धि हो वह वास्तविक ब्रह्मचर्य है । इससे विपरीत संभोग के लिए स्त्री-पुरुषोंकी जो चेष्टा है वह अब्रह्म है ॥ १८ ॥ गाय, घोड़ा, मणि, मुक्ता, आदि चेतन अचेतन रूप बाह्य धनमें तथा रागादिरूप अन्तरंग विकार में ममताभाव रखना परिग्रह है । यह परिग्रह छोड़ने योग्य है ||१९|| इन हिंसादि पाँच पापोंसे विरत होना सो अहिंसा आदि पाँच व्रत हैं । ये व्रत महाव्रत और अणु. व्रतके भेदसे दो प्रकारके हैं तथा जिसके ये होते हैं वह व्रती कहलाता है ॥ २० ॥ व्रतका संबन्ध रहने पर भी जो निःशल्य होता है-वही व्रती माना गया है। माया, निदान और मिथ्यात्वके भेदसे शल्य तीन प्रकारकी है । यह शल्य शल्य अर्थात् काँटोंके समान दुःख देनेवाली है || २१ ॥ सागार और अनगारके भेदसे व्रती दो प्रकारके हैं । इनमें अणुव्रतोंके धारी सागार कहलाते हैं और महाव्रतोंके धारक अनगार कहे जाते हैं ॥ २२ ॥ जो मनुष्य रागभावमें स्थित है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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