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________________ श्री शिवकोटि - विरचिता रत्नमाला सर्वज्ञं सर्ववागीशं वीरं मारमदापहम् । प्रणमामि महामोहशान्तये मुक्तताप्तये ॥ १ सारं यत्सर्वशास्त्रेषु वन्द्यं यद्वन्दितेष्वपि । अनेकान्तमयं वन्दे तदर्हद्वचनं सदा ॥२ सदावदात महिमा सदा ध्यानपरायणः । सिद्धसेन मुनिर्जीयाद् भट्टारकपदेश्वरः ॥३ स्वामी समन्तभद्रो मेऽहनिशं मानसेऽनघः । तिष्ठताज्जिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः ॥४ वर्धमानजिनाभावाद भारते भव्यजन्तवः । कृतेन येन राजन्ते तदहं कथयामि वः ॥५ सम्यक्त्वं सर्वजन्तूनां श्रेयः श्रेयःपदाथिनाम् । विना तेन व्रतः सर्वोऽप्यकल्प्पो मुक्तिहेतवे ॥६ निर्विकल्पश्चिदानन्दः परमेष्ठी सनातनः । दोषातीतो जिनो देवस्तदुपज्ञं श्रुतिः परा ॥७ दिगम्बरो निरारम्भो नित्यानन्दपदार्थनः । धर्मदिक् कर्मधिक् साधुर्गुरुरित्युच्यते बुधैः ॥८ अमीषां पुण्यहेतूनां श्रद्धानं तन्निगद्यते । तदेव परमं तत्त्वं तदेव परमं पदम् ॥८ विरत्या संयमेनापि होनः सम्यक्त्ववान् नरः । स देवं याति कर्माणि शीर्णयत्येव सर्वदा ||१० सर्वज्ञ, सर्वविद्याओंके ईश्वर, और कामदेवके मदका विनाश करनेवाले ऐसे श्री वीरप्रभुको अपने महामोहकी शान्तिके लिए और मुक्तिकी प्राप्ति के लिए मन-वचन कायसे नमस्कार करता हूँ ||१|| जो सर्वशास्त्रों में सारभूत है, और वन्दनीयोंमें भी वन्दनीय है, ऐसे अनेकान्तमयी अर्हत्प्रवचनकी मैं सदा वन्दना करता हूँ ||२|| जो सदा निर्मल धवल महिमावाले हैं, सदा ध्यानमें तत्पर रहते हैं और भट्टारकपदके ईश्वर हैं, ऐसे सिद्धसेन मुनि चिरकाल तक जीवित रहें ॥३॥ जो जिनराजसे प्रकट हुए शासनरूप सागरको बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके समान हैं ऐसे निर्दोष समन्तभद्रस्वामी मेरे मानसमें रात-दिन विराजमान रहें ॥४॥ आज भारतवर्ष में श्री वर्धमान जिनेन्द्रका अभाव होनेसे भव्य प्राणी जिसके धारण करनेसे शोभाको प्राप्त होते हैं, उस सम्यक्त्वका वर्णन मैं तुम श्रोताओंके लिए कहता हूँ ||५|| निःश्रेयसपदके इच्छुक सर्वप्राणियोंका सम्यक्त्व ही कल्याणकर्ता है । क्योंकि उसके विना धारण किये गये सभी व्रत मुक्ति के लिए कल्पनीय नहीं हैं, अर्थात् मुक्तिके कारण नहीं हैं ||६|| अब ग्रन्थकार सत्यार्थदेवशास्त्र गुरुका यथार्थ श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, यह बताते हुए उनका स्वरूप कहते हैं - जो सर्वविकल्पोंसे रहित हैं, सत् चिद् आनन्दमय है, परमपदमें स्थित हैं, ऐसे जिनेन्द्र देव ही सच्चे देव हैं । और उनके द्वारा प्रज्ञप्त द्वादशाङ्गरूप वाणी ही सर्वश्रेष्ठ श्रुति (आगम) है | जो दिगम्बर अर्थात् सर्वपरिग्रहसे रहित हैं, सर्वप्रकारके आरम्भोंसे भी रहित हैं, नित्य आनन्दस्वरूप पद (मोक्ष) के अर्थी हैं, धर्मका उपदेश देते हैं, और कर्मोंका विनाश करते हैं ऐसे साधुको ही ज्ञानिजन गुरु कहते हैं || ७-८ || पुण्यके कारणभूत इन तीनोंका श्रद्धान ही सम्यक्त्व कहा जाता है । यह सम्यक्त्व ही परमतत्त्व है और यही परमपद है ||९|| क्योंकि विरति ( चारित्र) और संयमसे रहित भी सम्यक्त्ववान् मनुष्य देवपदको प्राप्त होता है और सर्वदा पूर्वोपार्जित कर्मोकी निर्जरा करता है ||१०|| यदि सम्यक्त्वके प्राप्त करने के पूर्व किसीसे आगामी भवकी आयु नहीं बँधी है, तो उस जीवकी सातों नरकभूमिमें, मिथ्यादृष्टियोंके उत्पन्न होनेके योग्य ऐसे तीनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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