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________________ कुन्दकुन्दाचार्य - रचित चारित्रप्राभृतगत श्रावकाचार दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं । सायारं सग्गंथे परिग्गहा- रहिय खलु णिरायारं ॥१ दंसण वय सामाइय पोसह सच्चित्त-रायभत्ते य । बंभारंभ - परिग्गह- अणुमण - उद्दिट्ठ देसविरदो य ॥२ पंचेणुव्वयाइं गुणव्वयाई हवंति तह तिष्णि । सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं ॥३. थूले तसकायवहे थूले मोसे तितिक्वथूले य । परिहारो पर पिम्मे परिग्गहारंभपरिमाणं ॥४ दिसि विदिसि माण पढमं ऊणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिष्णि ॥५ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥६ एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं । [सुद्धं संजमचरणं जहधम्मं णिक्कलं वोच्छे ॥७] संयम चरण दो प्रकारका है - सागारसंयमचरण और अनगारसंयमचरण । सागार संयमचरण परिग्रह-धारी गृहस्थोंके होता है और अनगार संयमचरण परिग्रह - रहित अनगार मुनियोंके होता है ॥१॥ सागारसंयमचरण के ग्यारह भेद हैं-१ दर्शन प्रतिमा, २ व्रत प्रतिमा, ३ सामायिक प्रतिमा, ४ प्रोषधप्रतिमा, ५ सचित्त त्यागप्रतिमा ६ रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा, ७ ब्रह्मचर्यं प्रतिमा, ८ आरम्भत्याग प्रतिमा ९ परिग्रहत्याग प्रतिमा, १० अनुमति त्यागप्रतिमा और ११ उद्दिष्ट त्यागप्रतिमा । इन सब प्रतिमाओंके धारक देशविरत, संयतासंयत, उपासक, श्रावक और सागार संयमाचरणी कहलाते हैं ॥२॥ सागार संयम चरणका धारक श्रावकके पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार बारह व्रत होते हैं ||३|| स्थूल सकायिक जीवोंकी हिंसाका त्याग करना प्रथम अणुव्रत है । स्थूल झूठ बोलनेका त्याग करना दूसरा अणुव्रत है । स्थूल चोरीका त्याग करना तीसरा अणुव्रत है । परस्त्रीका त्याग करना चौथा अणुव्रत है और परिग्रह-आरम्भका परिमाण करना पांचव अणुव्रत है ॥४॥ दिशा - विदिशा में जीवनभर के लिए गमनागमनका प्रमाण करना प्रथम गुणव्रत है । अनर्थक पापोंका त्याग करना दूसरा गुणव्रत है और भोग-उपभोगकी वस्तुओं का परिमाण करना तीसरा गुणव्रत है ||५|| प्रतिदिन सामायिक करना प्रथम शिक्षाव्रत है । पर्वोंके दिन उपवास करना दूसरा शिक्षाव्रत है | अतिथिजनोंकी आहारादिके द्वारा पूजा सेवा वैयावृत्य आदि करना तीसरा शिक्षाव्रत है और जीवन के अन्त में सल्लेखना करना चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है || ६ || इस प्रकार श्रावकधर्मरूप सागारसंयमचरणको कहा । अब आगे यतिधर्मरूप अनगार संयमचरणको कहेंगे ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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