________________
श्रावकाचार-सारोद्धार
संघस्य रक्षणार्थं स गुर्वादेशवशंवदः । गत्वा तत्र तथा तस्थौ मुनीशः श्रुतसागरः ॥५५१ सन्मार्गप्रवणः शिष्यस्तनयो वा नयाचितः । स्वप्नेऽपि न क्वचिद्धत्ते गुर्वादेशविलङ्घनम् ॥५५२ लज्जाशुष्यन्मुखाब्जास्ते मन्त्रिणः पापतापिताः । तान् शास्त्रेण गतत्राणान् हन्मश्चेलुरिति द्रुतम् ॥५५३ रात्र ध्यानस्थितं दृष्ट्वा जजल्पुस्ते परस्परम् । वैरी पुरस्सरः सोऽयं यो व्यधत्त पराभवम् ॥५५४ अतोऽयमेव हिंस्यः स्यादिति ते कृतनिश्चयाः । खङ्गानुत्थापयामासुस्तद्वघार्थमपत्रपाः ॥५५५ अथ तद् व्रतमाहात्म्यात्क्षुभिता पुरदेवता । मन्त्रिणः स्तम्भयामास दुराशामोहिताशयान् ॥५५६ ततः प्रातर्नृपो दृष्ट्वा तान् जिघांसून् स्वमन्त्रिणः । निनिन्द निन्दिताचारागारानरुणलोचनान् ॥५५७ वधं निरपराधानां दुर्बोधा येऽत्र कुर्वते । भुक्त्वाऽतिदुष्करं दुःखं नरकं प्रविशन्ति ते ॥५५८ सामान्यजन्तु धातोत्यैः पापै सन्तापितात्मनाम् । न मुखालोकनं युक्तं कि पुनर्य तिघातिनाम् ॥५५९ गर्दभारोहणं कोपात्कारयित्वा ततो नृपः । पुरान्निःसारयामास मन्त्रिणो यतिघातकान् ॥५६० अथ नागपुरे चक्री वैरिचक्रविजित्वरः । महापद्मोऽभवत्तस्य भार्या लक्ष्मीमती सती ॥५६१ वैरिभूभृच्छिरोन्यस्तपादौ तेजस्वितोद्धतौ । पुष्पदन्ताविवाभूतां पद्म-विष्णू नृपात्मजौ ॥५६२ राज्ये निधाय पद्माख्यं लघुना विष्णुना समम् । श्रुतसागरमानम्य प्रव्रज्यामासदन्नृपः ॥५६३
३११
अन्यथा महान् विनाश उपस्थित है ||५५० || तब संघकी रक्षा करनेके लिए गुरुके आदेशके वशंगत श्रुतसागर मुनिराज उस वादस्थान पर जाकर ध्यान-स्थित हो गये || ५५१ || ग्रन्थकार कहते हैं कि सन्मार्ग में प्रवीण शिष्य और नयमार्ग से युक्त पुत्र स्वप्न में भी गुरुजनोंके आदेशका उल्लंघन कभी भी कहीं पर नहीं करते हैं ||५५२|| इधर लज्जासे जिनके मुख कमल सूख रहे हैं ऐसे वे पापसे सन्तप्तचित्त मंत्री 'रक्षासे रहित उन मुनियोंको शस्त्रसे मोरेंगे' ऐसा विचार करके घर से रात्रि के समय शीघ्र चल दिये || ५५३ || जाते हुए उन्होंने रात्रिमें ध्यानस्थित मुनिको देखकर परस्पर में कहा - 'जिसने अपना पराभव किया है वह वैरी यह सामने खड़ा है ||५५४ || इसलिए यही मारनेके योग्य है' ऐसा निश्चय करके उन निर्लज्ज निर्दयोंने उनके घातके लिए खड्गों को ऊपर उठाया ||५५५ ।। तभी उस साधुके व्रत माहात्म्यसे क्षोभको प्रान्त हुए नगरदेवताने खोटी आशासे मोहित दुराशयवाले उन मंत्रियोंको कीलित कर दिया || ५५६ ॥ तदनन्तर प्रातः काल साधुको मारने की इच्छावाले, निन्दनीय आचारके आगार (घर) और लालनेत्रवाले उन क्रूर अपने मंत्रियों को देखकर राजाने उनकी भारी निन्दा की || ५५७ || जो अज्ञानी पुरुष इस लोकमें निरपराध जीवोंका घात करते हैं, वे इसी जन्म में अति दुष्कर दुःख भोग करके महादुःखों से भरे हुए नरकमें प्रवेश करते हैं || ५५८|| साधारण जीवोंके घातसे उत्पन्न पापोंसे जिनकी आत्माएं सन्तप्त हैं, उनका ही मुख देखना जब योग्य नहीं है, तब मुनि-घातकोका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् वे तो सर्वथा ही देखने योग्य नहीं हैं ॥ ५५९ ॥ | तब राजाने क्रोधित होकर उन मुनि घातक मंत्रियोंको गधे पर चढ़वा कर नगरसे निकलवा दिया || ५६० ॥
हस्तिनापुर नामके नगरमें शत्रु चक्रको जीतनेवाला महापद्म नामका चक्रवर्ती था । उसकी लक्ष्मीमती नामकी सती पट्टरानी थी ॥५६१ | | उनके सूर्य और चन्द्रके समान पद्म और विष्णु नामके दो पुत्र थे, जो वैरिरूपी पर्वतके शिखर पर अपने चरणोंको रखनेवाले और तेजस्वितासे भरपूर थे || ५६२ || वह महापद्म चक्रवर्ती पद्म नामक ज्येष्ठ पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त करके विष्णु नामक छोटे पुत्रके साथ श्रुतसागर मुनिराजके समीप जाकर उन्हें नमस्कार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org