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श्रावकाचार-संग्रह महामोहव्यपोहेन सुभगं भावुकोदयम् । त्रिःपरीत्य तमोशानमिति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥६३ वाचामगोचरं नाथ स्तुतिगोचरतामहम् । यन्निनीषुस्त्वयि स्फारभक्तिस्तत्तत्र कारणम् ॥६४ अस्मिन्नपारसंसारपारावारे निमज्जताम् । त्वमेवालम्बनं नाथ प्राणिनां करुणाचणः ॥६५ यो रिसंति भव्यात्मा दुर्लभां मुक्तिवल्लभाम् । पवित्रं नाम मन्त्रं ते स जपत्वनिशं प्रभो ॥६६ विहाय हिमशीतां ये त्वद्वाक्यामृतदीपिकाम् । रमन्ते कूपदेशेषु ते मूढा दैववञ्चिताः ॥६७ देव त्वदर्शनादेव भावोऽभ्येति विनाशिताम् । उदिते हि सहस्रांशौ तिष्ठतीह कियत्तमः ॥६८ चतुर्गतिभवं दुःखं को निराकर्तुमीश्वरः । त्वां विना किमु दृष्टोऽब्धिमगस्त्यादपरः पिबन् ॥६९ गणनां त्वद्गुणौघस्य यश्चिकीर्षति मूढधीः । नभः कत्यङ्गलानीति पुराभ्यासं करोतु सः ॥७० भूर्भुवःस्वस्त्रयोनाथशिरोमालाचिताज्रये । केवलज्ञाननेत्राय तुभ्यं सुमतये नमः ॥७१ लोकप्रीणगुणाधारं गौतमं जगदुत्तमम् । ततो नत्वा निविष्टोऽसौ विशिष्टे नरकोष्टके ।।७२ तत्पाणिपद्मसङ्कोचं कुर्वन् स मुनिचन्द्रमाः । आशी सुधारसेनाशु प्रीणाति स्म महीपतिम् ।।७३ महीपतिरपि प्राह भक्तिब्रह्मशिरा मुनिम् । धर्मजिज्ञासमानं मां पुनीहि परया गिरा ॥७४ सभी उत्कृष्ट राज्य-चिन्होंको छोड़कर श्रेणिक राजाने देव, नाग और मनुष्योंसे पूजित सभा (समवशरण) में प्रवेश किया ॥६२।।
महान् मोहके विनाश कर देनेसे सौभाग्यशाली और परम पुण्योदयको प्राप्त उन त्रिजगस्वामी भगवान्की तीन प्रदक्षिणा देकरके उस श्रेणिकने इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया-- हे नाथ, आप वचनोंके अगोचर हैं, फिर भी मैं जो आपको स्तुतिका विषय बनाने के लिए उत्सुक हो रहा हूँ, इसमें मेरी आपमें बढ़ती हुई भक्ति ही कारण है ॥६३-६४॥ हे नाथ, इस अपार संसारसागरमें डूबनेवाले प्राणियोंके करुणा-कुशल आप ही आलम्बन हैं ॥६५॥ हे प्रभो, जो भव्यजीव मुक्तिवल्लभाके साथ रमण करनेकी इच्छा करता है, उसे आपका पवित्र नाम ही निरन्तर जपना चाहिए ॥६६।। सूर्यके प्रचण्ड तापसे सन्तप्त जो लोग तुम्हारे वचनामृतरूपी हिम (बर्फ) सदृश अतिशीतल वापिकाको छोड़ कर कूप-सदृश अन्य मतोंके वचनप्रदेशोंमें रमते हैं, वे मूढजन देवसे ठगाये गये हैं ॥७॥ हे देव. तम्हारे दर्शनसे ही जन्म-मरणरूप संसार विनाशको प्राप्त होता है। सूर्यके उदय होनेपर अन्धकार क्या इस लोकमें ठहर सकता है ? नहीं ठहर सकता ॥६८।। हे भगवान्, चतुर्गति-जनित दुःखको निराकरण करनेके लिए तुम्हारे विना और कौन समर्थ है ? क्या अगस्त्य ऋषिको छोड़कर दूसरा कोई समुद्रको पीता हुआ देखा गया है ? अर्थात् नहीं देखा गया ॥६९॥ जो मूढ़ बुद्धिवाला आपके गुण-समूहकी गणना करनेकी इच्छा करता है, वह 'आकाश कितने अंगुल प्रमाण है' इस प्रकारसे आकाशको नापनेका मानों पूर्वाभ्यास करता है ।।७०॥ भूर्भुवःस्वस्त्रयीनाथोंके (अधो, मध्य और स्वर्गलोकके स्वामियोंके)शिरोंपर धारण की गई मालाओंसे पूजित चरणवाले, केवलज्ञान रूप नेत्रके धारक और परम सुमति रूप भगवन्, आपके लिए मेरा नमस्कार है ॥७१।। तदनन्तर लोकको प्रीणित करनेवाले गुणोंके धारक और जगत्में उत्तम ऐसे गौतम स्वामीको नमस्कार करके वह श्रेणिक राजा मनुष्योंके विशिष्ट कोष्ठक (कक्ष) में बैठ गया ।।७२।।
तब राजा श्रेणिकके अपने हस्तकमलको संकुचित करनेपर मुनियोंमें चन्द्रके समान शोभित होनेवाले उन गौतम स्वामीने आशीर्वादरूप अमृतरससे तुरन्त राजाको प्रसन्न किया, अर्थात् श्रेणिकको शुभ आशीर्वाद दिया ॥७३॥ तब परम भक्तिसे नम्रीभूत है शिर जिसका ऐसे राजाने
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