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श्री पद्मनन्दि-विरचित श्रावकाचारका परिचय इस श्रावकाचारका आद्योपान्त पारायण करनेके पश्चात् ऐसा ज्ञात होता है कि मानों उमास्वामि-श्रावकाचारके कर्ताने इसके बीच-बीचके बहुभाग श्लोक उठाकर अपनी रचना की हो । पद्मनन्दीने जहाँ अन्यके श्लोकोंको उक्तं च कहकर दिया है, वहां उन्हीं श्लोकोंको उमास्वामि ने 'उक्तं च' आदि कोई भी संकेत नहीं करके अपने द्वारा रचित जैसे रूपमें निबद्ध किया है । यह तो सुनिश्चित ही है कि तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ता उमास्वामि-रचित उनका श्रावकाचार नहीं है, क्योंकि उन्होंने उसके प्रारम्भमें ही कहा है किपूर्वाचार्यप्रणीतानि श्रावकाध्ययनान्यलम् । दृष्ट्वाऽहं श्रावकाचारं करिष्ये मुक्तिहेतवे ॥२
अर्थात् में पूर्वाचार्योंसे रचित श्रावकाचारोंको भली-भांतिसे देखकर इस श्रावकाचारको रचूंगा । और यह इतिहासज्ञ जानते हैं कि वर्तमानमें उपलब्ध जितने श्रावकाचार हैं, उनमेंसे किसी को भी रचना तत्त्वार्थ सूत्रके निर्माण समयतक नहीं हुई थी। सभी श्रावकाचार तत्त्वार्थसूत्रके रचे जानेके बाद ही रचे गये हैं।
इसके अतिरिक्त पद्मनन्दीने अपने श्रावकाचारके रचनेकी भूमिका ठीक उसी प्रकारसे बांधी है, जिस प्रकारसे कि सभी पुराणकार बांधते हैं, अर्थात् भ० महावीरका विपुलाचलपर आगमन सुनकर राजा श्रेणिकका वन्दनार्थ जाना और उनके द्वारा पूछे जानेपर गणधर द्वारा श्रावक धर्मका वर्णन करना आदि।
उमास्वामी श्रावकाचारके अन्तमें आये हुए श्लोकाङ्क ४६४ के सूशेतु सप्तमेऽप्युक्ताः पृथङ्नोक्तास्तदर्थतः' इस पदसे, तथा श्लोकाङ्कः ४७३ के 'गदितमतिसुबोधापास्त्यकं स्वामिमिश्च' इस पदसे लोग इस श्रावकाचारके कर्ताको सूत्रकार उमास्वामी मानते हैं, सो यह भ्रम है। इसका विस्तारसे निराकरण श्री जुगलकिशोर जी मुख्तारने अपनी ग्रन्थपरीक्षामें भली-भांति किया है, अतः यहाँ देना अनावश्यक है । इतना यहां बता देना आवश्यक है कि 'स्वामिभिश्च' पदवाला श्लोक पद्मनन्दी श्रावकाचारके एक पदके स्थानमें परिवर्तन करके उसे ज्योंका त्यों अपना लिया है। तुलनाके लिए वे दोनों श्लोक यहाँ दिये जाते हैं
इति हतदुरितौघं श्रावकाचारसारं गणितमतिसुबोधापास्त्यकं स्वामिभिश्च । विनयभरनताङ्गाः सम्यगाकर्णयन्तु विशवमतिमवाप्य ज्ञानयुक्ता भवन्तु ॥४७३
__ (उमास्वामि श्रावकाचार) इति हतदुरितौघं श्रावकाचारसारं गदितमवधिलीलाशालिना गोतमेन । विनयभरनताङ्गः सम्यगाकर्ण्य हर्ष विशदमतिरवाप धेणिकः क्षोणिपालः ॥५०३
__ (पद्मनन्दि-श्रावकाचार) पद्मनन्दिने अपनी उत्थानिकाके अनुसार जैसे श्रेणिकका निर्देश करते हुए गौतमके द्वारा श्रावकाचारका वर्णन प्रारम्भ किया है, उसी प्रकारसे उन्हीं श्रेणिकका उल्लेख करते हुए उसे समाप्त किया है, जो कि स्वाभाविक है।
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