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________________ भावकाचार-संबह परिग्रहस्फुरद-भारभारिता भवसागरे । निमज्जन्ति न सन्देहः पोतवत्प्राणिनोऽचिरात् ॥३८४ परिप्रहगुरुत्वेन भारितो भविताऽगुणः । रसातलं समध्यास्ते यत्तदत्र किमद्भुतम् ॥३८५ परिग्रहपहप्रस्ते गुणो नाणुसमः क्वचित् । दूषणानि तु शैलेन्द्रमूलस्थानानि सर्वतः ॥३८६ नरे परिग्रहप्रस्ते न सन्तोषो मनागपि । वने दावसमाश्लिष्टे कुतः सस्तरसम्भवः ।।३८७ परिग्रहाद भयं प्राप्त श्रेष्टिपुत्रैः शतात्मकैः । पञ्चभिनुपपुत्रोऽपि त्यागादाप फलं शुभम् ॥३८८ अन्यान्मणिवतादींश्च प्रामदुःखपरम्परान् । ज्ञात्वा गृहरतः कुर्यावल्पमल्पं परिग्रहम् ॥३८९ इति मूछनभावं हि कर्मबन्धनिबन्धनम् । ममैतेऽहमथैतेषां चेति भावं विवर्जयेत् ॥३९० परिव पुरीमेतद्वतपञ्चपालिका । शीलमाता भवेत्सेव्या सप्तभेदा सुखप्रदा ॥३९१ कुता यत्र समस्तासु दिक्षु सीमा न लभ्यते । दिग्विरतिरिति जयं प्रथमं तद्-गुणवतम् ॥३९२ अपवितटिनीदेशसरोयोजनभूमयः । दिग्भागप्रतिसंहारे प्रसिद्धाः सीमभूमयः ॥३९३ स्थावरेतरसस्वानां विमर्दननिवर्तनात् । महाव्रतफलं सूते गृहिणां व्रतमप्यदः ॥३९४ अगद-प्रसनवक्षस्य प्रसरल्लोभरमसः । विनाशो विहितस्तेन येन दिग्विरतिः कृता ॥३९५ दिखतेन मितस्यापि देशस्य विवसादिषु । पुनः संक्षेपणं यत्र व्रतं देशावकाशिकम् ॥३९६ प्रामापणक्षेत्रपुरां वनभूयोजनात्मनाम् । सीमानं समयज्ञाश्च प्राहुर्देशावकाशिके ॥३९७ बढ़ते हुए भारसे बोझिल प्राणी अत्यधिक भारवाली नावके समान संसार-सागरमें शीघ्र डूबते हैं, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥३८४॥ परिग्रहकी गुरुतासे भारयुक्त पुरुष दोषवान होकर यदि रसातलको प्राप्त होता है, तो इसमें क्या आश्चर्य है ॥३८५।। परिग्रहरूप ग्रहसे ग्रस्त जीवमें गुण तो कभी भी कहीं अणु-समान भी नहीं होता, प्रत्युत दूषण शैलेन्द्र सुमेरुके समान बड़े-बड़े सर्वत्र होते हैं ॥३८॥ परिग्रहसे ग्रसित पुरुषमें जरा-सा भी सन्तोष नहीं होता है। दावाग्निसे व्याप्त वनमें वृक्षकी उत्पत्ति कैसे सम्भव है ।।३८७॥ परिग्रहसे सेठोंके पांच सौ पुत्र भयको प्राप्त हुए। और राजाका पुत्र परिग्रहके त्यागसे उत्तम फलको प्राप्त हुआ ॥३८८॥ परिग्रहसे दुःखोंकी परम्पराको प्राप्त हुए मणिवान् आदिक अन्य पुरुषोंके चरितको जानकर गृहस्थको उत्तरोत्तर अल्प-अल्प परिग्रह करना चाहिये (इन दोनों श्लोकोंसे सूचित मनुष्योंकी कथाएं कथाकोशसे जानना चाहिये, ॥३८९|| इस प्रकार परिग्रहमें मूर्छाभावको कम-बन्धका कारण जानकर 'ये बाह्यपदार्थ मेरे हैं, और मैं इनका स्वामी हूँ।' इस प्रकारका भाव छोड़ देना चाहिये ॥३९०॥ जैसे परिखा (खाई) पुरीकी रक्षा करती है, उसी प्रकार उक्त अहिंसादि पांचों व्रतोंका पालन करनेवाली सुखदायिनी सप्तमेदरूप शीलमाताकी सेवा (आराधना) करनी चाहिये ॥३९१।। समस्त दिशाओं में गमनागमनकी सीमा करके उसका उल्लंघन नहीं करना सो दिग्विरति नामका प्रथम गुणव्रत जानना चाहिये ॥३९२॥ प्रसिद्ध पर्वत, समुद्र, नदी, देश, सरोवर और भूमि आदि दिशाओंके परिमाण करने में सोमा भूमि कहे गये हैं ॥३९३|| दिग्व्रतको सीमाके बाहर स्थावर और त्रसजीवोंकी हिंसाके दूर होनेसे गृहस्थोंके ये अणुव्रत भी महाव्रतोंके फलको देते हैं ।।३९४।। जिस मनुष्यने दिग्विरतिको धारण किया है, मानो उसने सर्वजगत्को ग्रसन करने में दक्ष इस बढ़ते हुए लोभरूप राक्षसका विनाश कर दिया है ॥३९५।। दिग्व्रतके द्वारा सीमित भी देशका दिन आदि कालकी मर्यादासे और भी संकुचित करना सो देशावकाशिक नामका दूसरा गुणव्रत है ॥३९६॥ आगमके ज्ञाताजन देशावकाशिक व्रतमें ग्राम, बाजार, खेत, नगर, वन भूमि और योजन स्वरूप सीमाको कहते हैं ॥३९७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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