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________________ १७२ श्रावकाचार-संग्रह नाम्ना वृषभसेनाया धेष्टिपुत्री पवित्रवाक् । औषधस्य प्रदानेनाभूद ऋद्धिपरिमण्डिता ॥२३७ निर्भयोऽभयदानेन सम्पनीपद्यते पमान । चिरञ्जीवी जगज्जिष्णर्यशस्वी च जितेन्द्रियः ॥२३ सम्यक्त्वव्रतशीलानि तपांसि विविधान्यपि । अभयाख्येन दानेन सफलानि भवन्ति च ॥२३९ सूकरेण च सम्प्राप्तं तद्दानफलमुत्तमम् । ततो मुक्त्वा चतुर्दानान्यन्यानि च परित्यजेत् ॥२४० दानेन पुण्यमाप्नोति प्रसिद्धं कुलमप्यहो । शीलं सकलकल्याणं विवेकं विनयं सुखम् ॥२४१ इति मत्वा शुभं दानं सदा देयं महोजितैः । येन स्वर्गादिजं सौख्यं भुक्त्वा भव्यः शिवी भवेत् ॥२४२ इति षट्कर्मभिनित्यं गृही श्रीजिनभाषितम् । धर्म कुर्वन् गृहारम्भषड्ज वा पापमस्यति ॥२४३ खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी प्रमार्जनी । गृहारम्भाः पञ्च चैते षष्ठं द्रव्यसमर्जनम् ॥२४४ श्रावको जायते षभिः कर्मभिः कर्मघातिभिः । अहोरात्रसमुद्भूतं पापं तैरेव क्षिप्यते ॥२४५ सम्यक्त्वं निर्मलं पुंसामेभिः सम्बोभवोति च । एभिः श्रीजिनधर्मस्याराधको जायते नरः २४६ इति स्वाध्यायमुख्यानि चतुष्कर्माणि सत्पदे । चतुर्थे कथितानीह वक्ष्येऽहं ज्ञानमुत्तरे ॥२४७ इत्थमात्मनि संरोप्य सम्यक्त्वं मुक्तिकाक्षिभिः । समुपास्यं ततः सम्यग्ज्ञानं साम्नायमुक्तिभिः ॥२४८ दी जाती है, तो वह दाता उसके देनेसे भव-भवमें नरक-ग्राममें जानेवाला होता है ॥२३६।। पवित्र वाणी बोलनेवाली वृषभसेना नामकी श्रेष्ठिपुत्री औषधिके दानसे सर्वोषधऋद्धिसे मण्डित हुई ॥२३७॥ अभयदान देनेसे मनुष्य सदा निर्भय रहता है और चिरजीवी, जगज्जेता, यशस्वी एवं जितेन्द्रिय होता है ।।२३८।। अभय नामक इस दानके देनेसे सम्यक्त्व, व्रत, शील और अनेक प्रकारके तप सफल होते हैं ॥२३९॥ इस अभय दानके फलसे सूकरने उत्तम फल प्राप्त किया। उपर्युक्त चारों दानोंके सिवाय अन्य दान नहीं देना चाहिये ॥२४०।। दान देनेसे मनुष्य उत्तम पुण्यको प्राप्त करता है और प्रसिद्ध कुलको भी पाता है। दानसे शील, सर्व कल्याण, विवेक, विनय और सुख प्राप्त होता है ॥२४१।। ऐसा जानकर महान पुरुषार्थी जनोंको सदा उत्तम दान देना चाहिये । इसके प्रभावसे भव्य पुरुष स्वर्गादिके सुख भोगकर अन्तमें शिवपदको प्राप्त करता है ॥२४२।। इस प्रकार जो गृहस्थ देवपूजादि षट्कर्मोंके द्वारा नित्य ही जिनभाषित धर्मको करता है, वह छह प्रकारके गृहारम्भ-जनित पापोंका नाश करता है ।।२४३।। वे गृहारम्भवाले छह प्रकारके पाप ये हैं-खण्डनी (ऊखली), पेषणी (चक्की), चूल्हा, उदकुम्भी (पानीका परंडा) और प्रमार्जनी (बुहारी) । पाँच तो ये और छठा द्रव्यका उपार्जन। गृहस्थके ये छह गृहारम्भ सदा होते रहते हैं, अतः इनके द्वारा संचित पापोंको दूर करनेके लिए श्रावकको देवपूजादि छह आवश्यक कार्य सदा करते रहना चाहिये ।।२४४॥ पेषणी, कुट्टनी आदि छह प्रकारके आरम्भ कार्योंके द्वारा रात-दिन उपार्जन किये गये पापको श्रावक देव पूजादि कर्म-घातक छह आवश्यक कार्योंके द्वारा नाश करता है ॥२४५।। इन छह आवश्यकोंके द्वारा ही मनुष्योंका सम्यग्दर्शन निर्मल होता है और इनके द्वारा ही मनुष्य जिनधर्मका आराधक होता है ॥२४६। इस प्रकार स्वाध्याय है मुख्य जिनमें ऐसे चार आवश्यक कर्म अर्थात् स्वाध्याय, संयम, तप और दान चौथे सत्पदमें कहे। अब इससे आगे मैं सम्यग्ज्ञानका वर्णन करूंगा ॥२४७।। इस प्रकार मुक्तिकी आकांक्षा रखनेवाले गृहस्थोंको आत्मा में सम्यग्दर्शनका संरोपण करके तत्पश्चात् प्रवचनकी उक्तियोंसे आम्नाय-पूर्वक सम्यग्ज्ञानकी उपासना करनी चाहिये ॥२४८।। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक ही कालसे जन्मको प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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