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________________ १२३ . लाटीसंहिता धनशब्दो गवाद्यर्थः स्याच्चतुष्पदवाचकः । विधेयं तत्परिमाणं ततो नातिक्रमो वरः ॥१०३ धान्यशब्देन मुद्गादि यावदन्नकदम्बकम् । व्रतं तत्परिमाणेन व्रतहानिरतिक्रमात् ॥१०४ दासकर्मरता दासी क्रीता वा स्वीकृता सती । तत्संख्या वतशुद्धचथं कर्तव्या सानतिक्रमात् ॥१०५ यथा दासी तथा दासः संख्या तस्यापि श्रेयसी । श्रेयानतिक्रमो नैव हिंसातृष्णोपबृंहणात् ।।१०६ कुप्यशब्दो घृताद्यर्थस्तभाण्डं भाजनानि वा । तेषामप्यल्पीकरणं श्रेयसे स्थाव्रतापिनाम् ॥१०७ उक्ताः संख्याव्रतस्यास्य दोषाः संक्षेपतो मया। परिहार्याः प्रयत्नेन संख्याणुव्रतधारिणा ॥१०८ प्रोक्तं सूत्रानुसारेण यथाणुवतपञ्चकम् । गुणवतत्रयं वक्तुमुत्सहेदधुना कविः ॥१०९ दिग्देशानर्थदण्डानां विरतिः स्याद्गुणवतम् । एकत्वाद्विरतेश्चापि ओषा विषयभेदतः ॥११० दिग्विरतियथानाम दिक्षु प्राच्यादिकासु च । गमनं प्रतिजानीते कृत्वासोमानमार्हतः ॥१११ उल्लङ्कन कभी नहीं करना चाहिये ॥१०२।। धन शब्दका अर्थ गाय भैंस घोड़ा आदि चार पैर वाले पशु हैं। अणुव्रती थावकको गाय भैंस आदि पशुओंका परिमाण भी नियत कर लेना चाहिये तथा जितने पशुओंका परिमाण नियत किया है उससे कभी बढ़ाना नहीं चाहिये ॥१०३।। गेहूँ, जौ, उड़द, मूंग आदि सब प्रकारके अन्नोंको धान्य कहते हैं। परिग्रहका परिमाण करनेवाले श्रावकको इम धान्योंका परिमाण भी नियत कर लेना चाहिये तथा जितना परिमाण नियत किया है उसका उल्लङ्घन कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि नियत किये हुए परिमाणका उल्लङ्घन करनेसे व्रतकी हानि होती है, व्रतमें दोष लगता है ॥१०४॥ घरका काम काज करनेवाली स्त्रीको दासी कहते हैं, चाहे वह खरीदी हो, नौकर रक्खी हुई हो अथवा और किसी तरहसे काम काजके लिये घरमें रख ली हो । अणुव्रती श्रावकोंको अपना परिग्रह परिमाणव्रत शुद्ध रखनेके लिये दासियोंकी संख्या भी नियत कर लेनी चाहिये तथा जितनी संख्या नियत की है उसका उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये ॥१०५।। जिस प्रकार टहल चाकरी करनेवाली दासियां होती हैं उसी प्रकार दास होते हैं। अणुव्रती श्रावकको दासोंकी संख्या भी नियत कर लेनी चाहिये और फिर नियत की हुई संख्याको कभी नहीं बढ़ाना चाहिये क्योंकि नियत की हुई संख्याको बढ़ा लेनेसे हिंसा और तृष्णाकी वृद्धि होती है ।।१०६।। कुप्य शब्दका अर्थ घी तेल आदि रखनेके बर्तन अथवा रोटी पानी आदिके बर्तन हैं । व्रतोंको धारण करनेवाले श्रावकोंको उन बर्तनोंकी संख्या भी घटा लेनी चाहिये क्योंकि ममत्व या परिग्रह जितना कम होता है उतना ही पाप कम लगता है तथा उतना ही आत्माका कल्याण अधिक होता है ।।१०७॥ इस प्रकार संक्षेपसे परिग्रह परिमाणके अतिचार या दोष बतलाये । परिग्रहपरिमाण नामके अणुव्रतको धारण करनेवाले श्रावकको प्रयत्न पूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिये ॥१०८|| जिस प्रकार पाँचों अणुव्रतोंका स्वरूप सूत्रके अनुसार निरूपण किया है उसी प्रकार अब तीनों गुणव्रतोंका स्वरूप कहते हैं ॥१०९|| दिशाओंका त्याग करना (दिशाओंकी मर्यादा नियत कर उससे आगे आने जानेका त्याग करना) देशका त्याग (कुत्सित देशमें जानेका त्याग अथवा जो त्याग किया है उसको किसो कालकी मर्यादासे और घटाना) तथा अनर्थ दण्डोंका त्याग (विना प्रयोजनके जिनमें पाप लगता है ऐसी क्रियाओंका त्याग कर देना) इन तीनोंको गुणवत कहते हैं । यद्यपि त्यागकी अपेक्षासे ये तीनों ही एक हैं तथापि जिनका त्याग किया जाता है उन विषयोंमें भेद होनेसे तीन प्रकारके कहलाते हैं ॥११०।। भगवान् अरहन्तदेवकी आज्ञानुसार व्रतोंको धारण करनेवाले श्रावकको पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि सब दिशाओंकी सीमा नियत कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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