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________________ धावकाचार-संग्रह मन्त्रादिनापि बन्धादिः कृतो रज्ज्वादिवन्मलः । तत्तथा यतनीयं स्यान यथा मलिनं वतम् ॥१९ हिहिंसकहिंसातत्फलान्यालोच्य तत्त्वतः । हिंसो तथोज्झेन यथा प्रतिज्ञाभङ्गमाप्नुयात् ॥२० प्रमत्तो हिंसको हिंस्या द्रव्यभावस्वभावकाः । प्राणास्तद्विच्छिदा हिंसा तत्फलं पापसञ्चयः ॥२१ कषायविकथानिद्राप्रणयाक्षविनिग्रहात् । नित्योदयां दयां कुर्यात् पापध्वान्तरविप्रभाम् ॥२२ अपेक्षा रखनेवाले व्यक्तिका व्रतका एकदेश भंग होना अतिचार कहलाता है। मंत्र-तंत्रके प्रयोग हैं आदिमें जिनके ऐसे दुष्ट कर्मों के कारणभूत ध्यानादि दूसरे शास्त्रों में कहे गये खोटे कर्म भी व्रतको अपेक्षापूर्वक उसके एकदेश भंग होने रूप प्रकारसे अतीचार समझना चाहिये । भावार्थ-व्रतमें अपेक्षा रखनेवाले व्यक्तिका अन्तरंग व बहिरंग किसी एक वृत्तिसे व्रतका भंग होना अतिचार कहलाता है। इसलिए उक्त पांच अतिचारके अतिरिक्त मंत्र-तंत्र आदिकके द्वारा किये गये किसी प्राणीके बंध आदिक भी अतिचार हैं। इष्टक्रियाके सिद्ध करने में समर्थ विशिष्ट अक्षरोंके समूहको मंत्र तथा सिद्ध औषधियों को तंत्र कहते हैं ||१८|| मंत्रादिकके द्वारा भो किया गया बंधादिक रस्सी आदि से किये गये बंधकी तरह अतिचार होता है। इसलिये उस प्रकारसे यत्नत्रपूर्वक प्रवृत्ति करना चाहिये जिस प्रकारसे व्रत मलिग या अतिचार सहित नहीं होवे । भावार्थ-जैसे रस्सी आदिसे किसी का बांधना आदि अतिचार बताया है, उसी प्रकार मंत्र-तंत्र आदिके द्वारा किया गया बंध आदि भी अतिचार है। क्योंकि मंत्र तंत्र आदिके द्वारा किये गये बंध आदिमें भो व्रतका एकदेश भंग और पालन होनेसे अतिचारका लक्षण घट जाता है। इसलिए प्रत्येक व्रतको भावनाओं पूर्वक तथा प्रमादपरिहार पूर्वक इस तरह पालन करना चाहिये, जिससे लिये हुए व्रत मलिन नहीं होने पावें ।।१९।। श्रावक यथार्थ रीतिसे हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाके फलको विचार करके हिंसाको उस प्रकारसे छोड़े जिस प्रकारसे व्रतोंको ग्रहण करनेवाला वह श्रावक प्रतिज्ञाके भंगको प्राप्त नहीं होवे। भावार्थ-हिंसा किसकी होती है, हिंसक कौन है, हिंसा किसे कहते हैं ? हिंसाका क्या फल है, इन बातोंका गुरु और अन्य विद्वानोंके साथ तत्त्वदृष्टिसे खूब विचार करके अहिंमाणुव्रती हिंसाका इस रीतिसे त्याग करे कि जिससे उसकी गहीत प्रतिज्ञाका भंग नहीं होने पावे ॥२०॥ कषायसे युक्त आत्मा हिंसक है। द्रव्य और भाव रूप प्राण हिंस्य कहलाते हैं उन द्रव्यभावरूप प्राणोंका वियोग करना हिंसा है और खोटे कर्मोंका बंध हिंसाका फल है। भावार्थ-प्रमादसहित परिणामयुक्त व्यक्ति हिंसक कहलाता है। द्रव्य और भाव प्राण हिंस्य है। प्राणोंका वियोग हिंसा कहलातो है । और नाना प्रकारके पापका बध हिसाका फल है ।।२१।। अहिसाणुव्रतकी निर्मलताका इच्छुक श्रावक कषाय, विकथा, निद्रा, मोह और इन्द्रियोंके विधिपूर्वक निग्रह करनेसे पापरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिये सूर्यकी प्रभाके समान तथा सदैव ही प्रकाशित रहनेवालो दयाको करे। भावार्थ-पंद्रह प्रमादोंको जीतकर पापरूपी अन्धकार को नाश करनेके लिए सूर्यको कान्तिके समान सदा उदित रहनेवाली दया करना चाहिये । दया भावकी वृद्धिके लिए क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें, भोजनकथा; स्त्रीकथा; देशकथा और राजकथा ये चार विकथायें, निद्रा, प्रणय और पांच इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति इन पन्द्रह प्रमादोंका त्याग आवश्यक है। यह मेरा है, इस प्रकारका संकल्प प्रणय कहलाता है। निद्रा और चारों कषाय प्रसिद्ध हैं। विकथाओंका स्वरूप इस प्रकार है-ये चावल बढ़िया और मोहक हैं। मुझे अच्छी तरह खाना चाहिये, तुम खाओ, जो लोग खाते हैं, वे बहुत अच्छा करते हैं। इस प्रकार भोजनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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