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________________ श्रावकाचार संग्रह 1 1 यन्मुक्त्यङ्गमहसेव तामुमुक्षुरुपासकः । एकाक्षवघमप्युज्झेद् यः स्यान्नावर्ज्य भोगकृत् ॥११ गृहवासो विनारम्भान्न चारम्भो विना वधात् । त्याज्यः स यत्नात्तन्मुख्यो दुस्त्यजस्त्वानुषङ्गिकः ॥ १२ दुःखमुत्पद्यते जन्तोर्मनः संक्लिश्यतेऽस्यते । तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिसा हेया प्रयत्नतः ॥ १३ सन्तोषपोषतो यः स्यादल्पारम्भपरिग्रहः । भावशुद्धयेकसर्गोऽसाव हिंसाणुव्रतं भजेत् ॥१४ मुञ्चन् बन्धं वधच्छेदावतिभारादिरोपणम् । भुक्तिरोधं च दुर्भावाद् भावनाभिस्तदा विशेत् ॥१५ हिंसा में भी सावधानी रखे ||१०|| यतः अहिंसा ही मोक्षका कारण है, अतः मोक्षको चाहनेवाला श्रावक जो एकेन्द्रिय प्राणियोंका वध त्याग नहीं किये जा सकने योग्य भोगोपभोगको करनेवाला अथवा सेवन करने योग्य भोगोपभोगको करनेवाला नहीं होता उस एकेन्द्रिय प्राणियोंके वधको भी छोड़ देवे । भावार्थ - अहिंसा ही मोक्षका कारण है इसलिये मोक्षका इच्छुक श्रावक त्रसहिंसा के समान ऐसी स्थावर हिंसाका भी परित्याग कर देवे जो सम्पादनीय भोगकारक नहीं है अथवा जिसका त्याग कर सकना अशक्य नहीं है । अर्थात् गृहनिरत श्रावकको भी संकल्पी हिंसा के समान निरर्थक स्थावर हिंसाका भी त्याग करना चाहिये || ११ | गृहस्थाश्रम आरम्भके विना नहीं होता और आरम्भ प्राणियोंकी हिंसाके विना नहीं होता, इसलिये संकल्प पूर्वक होनेवाला वह वध प्रयत्न पूर्वक छोड़ने योग्य है । किन्तु कृष्यादिक कामोंके करनेसे होनेवाला वह वध छोड़नेके लिये अशक्य है अर्थात् गृहस्थ के लिये कृष्यादिक कर्मोंसे होनेवाली हिंसाका छोड़ना शक्य नहीं । भावार्थ - गृहवाम आरम्भके विना नहीं होता और आरम्भ हिंसाके विना नहीं होता, इसलिये गृहवासीको अपने किसी मतलब से 'मैं मारता हूँ' इस प्रकारकी संकल्पी हिंसाका प्रयत्नपूर्वक त्याग कर देना चाहिये । किन्तु खेती आदिक आजीविका करते समय संकल्परहित जो आरम्भी हिंसा होती है वह गृहवासीके लिये दुस्त्यज है ||१२|| जिस हिंसा में प्राणीके दुःख उत्पन्न होता है, मन संक्लेशको प्राप्त होता है, और उस प्राणी की वर्तमान पर्याय विनाशको प्राप्त होती है वह हिंसा प्रयत्नपूर्वक छोड़ने योग्य है ||१३|| ३० । गृहस्थ मनकी शुद्धि में है एक ध्यान जिसका ऐसा और सन्तोषकी पुष्टिसे अर्थात् अधिक सन्तोष होने के कारण थोड़ा आरम्भ तथा थोड़ा परिग्रह रखनेवाला है वही गृहस्थ अहिंसाणुव्रतको सेवन करे । भावार्थ :- जिसकी सन्तोषवृत्ति अनामक्ति के कारण वर्धमान रहती है। जिसके आरम्भ और परिग्रह इतने अल्प होते हैं कि उनसे आर्त और रौद्र ध्यान उत्पन्न नहीं होते और जो अपने भावी शुद्ध एकाग्र रहता है, वही अहिंसाणुव्रतको पालन कर सकता है || १४ || खोटे परिणामों से बन्धको, वध और छेदको बहुत बोझा आदिके लादनेको और अन्न-पान के निरोधको छोड़नेवाला व्रती पुरुष अहिंसाणुव्रतकी भावनाओं द्वारा उस अहिंसाणुव्रत को पालन करे । विशेषार्थ - गाय, बेल, मनुष्य आदिको रस्सी आदिसे बांधना बन्ध कहलाता है । शिक्षित और सुशील बनानेके लिये शिष्य और पुत्र आदिको जो दण्ड दिया जाता है वह अतिचार जनक नहीं है। इस श्लोकमें दिये हुए 'दुर्भावात्' पदसे यह ध्वनित होता है कि कषायोंके तीव्र उदयके वश होनेसे ही बन्ध अतिचार होता है । विनय आदि गुण सिखानेके लिये प्रयुक्त बन्ध अतिचार नहीं है । बंधके दो भेद हैं - सार्थक और निरर्थक । निरर्थक बंघ तो श्रावकके द्वारा सर्वथा हेय है। सार्थक बंधके भी दो भेद हैं-साक्षेप और निरक्षेप | अपने पालतू जानवर, अग्नि आदिका उपद्रव आनेपर बंध ढोला होनेसे स्वयं अपनी रक्षा कर सकें, इस अपेक्षासे लगाये गये ढीले बन्धनको साक्षेप सार्थक बंध कहते हैं । इस बंधमें बद्ध प्राणीकी रक्षाकी जिम्मेदारी अवश्य रखना चाहिये । अथवा श्रावकको वे ही पालतू जानवर आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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