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________________ चौथा अध्याय सम्पूर्णदृग्मूलगुणो निःशल्यः साम्यकाम्यया । धारयन्नुत्तरगुणानर्णान्वतिको भवेत् ॥? सागारो वानगारो वा यन्निःशल्यो व्रतीष्यते । तच्छत्यवत्कुदङमाया-निदानान्युद्धरेद् धदः ॥२ बाभान्त्यसत्यदृङ्मायानिदानैः साहचर्यतः । यान्यव्रतानि व्रतवद् दुःखोदर्काणि तानि धिक् ॥३ पञ्चधाणुव्रतं त्रेधा गुणवतमगारिणाम् । शिक्षाव्रतं चतुर्धेति गुणाः स्युादशोत्तरे ।४ विरतिः स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः । क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाद्यणुव्रतानि स्युः ॥५ परिपूर्ण सम्यक्त्व और मूलगुणका धारक शल्यरहित तथा इष्टानिष्ट पदार्थों में रागद्वेषके विनाश करनेकी इच्छासे निरतिचार उत्तरगुणोंको धारण करनेवाला व्यक्ति व्रतिक होता है या कहलाता है ॥१॥ यतः शल्यरहित गृहस्थ अथवा मुनि हो व्रतो माना जाता है अतः व्रत का इच्छुक व्यक्ति शल्यकी तरह मिथ्यात्व, माया और निदानको हृदयसे दूर करे। भावार्थ-विपरीत तत्त्व श्रद्धानको मिथ्यात्व कहते है। पर-वंचनाको माया कहते हैं और व्रत-पालन कर इस भवमें या आगामी भवमें फल पानेकी इच्छाको निदान कहते हैं। मुनि या श्रावक कोई भी हो बिना शल्यके त्याग किये 'वती' नहीं हो सकता। इसलिये व्रती होनेवाले व्यक्तिको मिथ्या, माया और निदान नामक तीनों शल्योंको अपने हृदयसे निकाल देना चाहिये। जैसे केवल गाय भैसोंके पालनेसे कोई 'गोमान्' नहीं कहला सकता, किन्तु दूध देने वाली गाय भैसोंके योगसे ही सच्चा 'गोमान्' कहलाता उसी प्रकार केवल व्रतोंके पालनसे हो कोई सच्चा 'व्रती' नहीं हो सकता किन्तु निःशल्य होकर व्रतपालनसे ही व्रती कहला सकता है ।।२।। दुःख ही है उत्तरफल जिन्होंका ऐसे जो अव्रत मिथ्यात्व, माया और निदानके सम्बन्धसे व्रतोंकी तरह मालूम होते हैं उन अव्रतोंको रिक्कार है । भावार्थमिथ्यात्व, माया और निदान इन तीनों शल्योंके सहयोगसे जो व्रताभास व्रतके समान मालूम होते हैं, उनका फल संवर और निर्जरा नहीं है किन्तु दुःख ( आस्रव और बन्ध ) है । इसलिये व्रतियोंको अपने हृदयसे इन तीनोंको दूर कर देना चाहिये ।।३।। पाँच प्रकारका अणुव्रत, तीन प्रकारका गुणव्रत और चार प्रकारका शिक्षाव्रत इस प्रकार गृहस्थोंके बारह उत्तर गुण होते हैं । विशेषार्थमहाव्रतकी अपेक्षासे श्रावकके अहिंसा दिव्रत लघु हैं इसलिये ये 'अणुव्रत' कहलाते हैं। दिग्व्रत आदि व्रत अणुव्रतोंमें गुण लाते हैं अथवा अणुव्रतोंका उपकार करते हैं इसलिये ये 'गुणवत' कहलाते हैं। देशावकाशिक आदि व्रतोंसे मुनिव्रत पालनके हेतु प्रतिदिन शिक्षा मिलती है इसलिये ये 'शिक्षावत' कहलाते हैं ॥४॥ किसी गृहविरत श्रावकमें मन वचन काय सम्बन्धी कृत कारित अनुमोदन इन नौ भङ्गों द्वारा स्थूलहिंसा आदिकसे निवृत्त होना पाँच अहिंसा आदि अणुव्रत होते हैं और किसी गृहनिरतश्रावकमें अनुमोदनाको छोड़कर शेष छह भङ्गोंके द्वारा स्थूल हिंसा आदिकसे निवृत्त होना पाँच अहिंसा आदिक अणुव्रत होते हैं। भावार्थ-व्रतप्रतिमाधारोके दो भेद हैं। गृहवासविरत और गृहवासनिरत । मन वचन काय इन तीनों भंगोको कृत, कारित और अनुमोदना इन तीन भंगोंसे गुणा करनेपर ९ भंग होते हैं । गृहवासविरतके इन नौ ही भंगों द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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